पुस्तक समीक्षा : मीडिया में दलित और सरोकारों की वकालत करता “मीडिया में दलित”
देश की दलित आबादी के प्रति न्यूज रूम का रवैया और सरोकार किस तरह के हैं, कब दलित समाचारों में जगह बनाता है और कब उसे बाहर कर दिया जाता है, मीडियाकर्मियों के बीच दलितों का कुल अनुपात क्या है, क्यों नहीं दलित इस देश के मीडिया के मुख्यधारा के बीच जगह बना पा रहा है, दलित-वंचित वर्ग के कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा निकाली गयी पत्र-पत्रिकाओं की सच्चाई क्या है, उनकी व्याप्ति और सरोकार के स्तर क्या हैं.....इस तरह के अनेक सवालों से जूझते हुए, टकराते हुए, उन्हें खोजते हुए रश्मि प्रकाशन, लखनऊ ने संजय कुमार की पुस्तक मीडिया में दलित को प्रकाशित किया है।
मीडिया में दलित हिस्सेदारी एवं दलित सरोकारों की अनदेखी सहित अन्य मुद्दों को लेखक-पत्रकार संजय कुमार की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘मीडिया में दलित’, खुद संजय कुमार की चर्चित पुस्तक ‘मीडिया में दलित ढूंढ़ते रह जाओगे’ की अगली कड़ी है। “मीडिया में दलित” पुस्तक में 25 आलेख है जो 152 पृष्ठ में, दलित मीडिया से विमर्श करते मिलते हैं। मीडिया में दलित, ढूंढते रह जाओगे, मीडिया में दलित आ भी जाये तो करेंगे क्या, मीडिया में दलित और दलितों का मीडिया, दलित मीडिया एडवोकेसी, आलोचना नहीं हतोत्साहित करना मकसद, मीडिया में दलित आंदोलन...., दलित पत्रकारिता, दलित पत्रकारिता की दिशा, दलितों का हो अपना मीडिया, सामाजिक न्याय और मीडिया, दलित सवालों की अनदेखी, दलितों से मुंह फेरता मीडिया, सोशल मीडिया पर दलित विरोध, मीडिया भी जाति देखता है, काले धंधे के रक्षक, खबर का भुनाया जाना, जाति की जय हो, द्विज समाज की दूषित सोच, कहाँ है मीडिया, दलित उत्पीड़न कब तक?, ‘दीन दलित का संघर्ष’, मीडिया का नजरिया ढुलमुल, कहर दलितों पर मीडिया की खामोशी, मीडिया में डॉ.आम्बेडकर, और कब दूर होगी दलित की शिकायत आलेखों के जरिये दलित आवाज को बुलंद करता है 'पुस्तक ‘मीडिया में दलित’ है।
व्यवसाय में तबदील मीडिया पर जातिवाद, भाई-भतीजावाद आदि के आरोप भी लगते रहे हैं। मीडिया के जाति प्रेम का खुलासा, सर्वे रिर्पाटों से हो चुका है। पुस्तक की शुरूआत आलेख ‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’ से किया गया है। शीर्षक खुद-ब-खुद वस्तुस्थिति को पटल पर ला खड़ा कर जाता है। यानी मीडिया में दलितों की हिस्सेदारी नहीं है। भारतीय मीडिया में दलितों के सवालों के प्रवेश पर अघोषित प्रतिबंध को बेनकाब करता है। लेखक, उदाहरण और आंकड़ों से बताते हैं कि अभी भी समाज में बराबरी और गैर बराबरी का जो फासला है और इसके लिए समाज को ही जिम्मेदार बताया जाता हैं। ‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’ में सप्रमाण यह सिद्ध किया गया है कि मीडिया हाउसों पर ऊँचें पदों पर सवर्ण ही आसीन है और उन्होंने ऐसा चक्रव्यूह रच रखा है कि किसी दलित का या तो वहां पहुंच पाना ही असंभव होता है। अगर किसी तरह पहुंच भी गया तो, टिक पाना मुश्किल है। 2006 में हुए राष्ट्रीय सर्वे को केन्द्र में रख मीडिया की तस्वीर परोसी गयी है। लम्बे अंतराल के बाद भी न्यूज रूम की तस्वीर नहीं बदली है। अगर कोई मीडिया में आ भी जाता है तो वह उत्पीड़न को शिकार होता है। वहीं, सरकारी मीडिया में आरक्षण और पहल से हुए बदलाव को मजबूती से पुस्तक में रखा गया है।
पुस्तक में भारतीय मीडिया के समक्ष दलित मीडिया को खड़ा करने की सुगबुगाहट को भी जोरदार ढंग से उठाया गया है। दलित पत्रकारिता पर प्रकाश डालते हुए, इसे खड़ा करने के प्रयासों पर चर्चा किया गया है। वर्षों से उपेक्षित दलितों के बराबरी के मसले को उठाते हुए बहस की संभावना तलाशी गयी है। बराबरी के लिए सरकारी प्रयासों पर विरोध और दलितों को मुख्यधारा से अलग रखने की साजिश को बेनकाब किया गया है। सोशल मीडिया पर दलित विरोध को भी उदाहरण और तस्वीर के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। दलितों को सरकार की ओर से दी जाने वाली सुविधाओं का विरोध करते हुए सोशल मीडिया पर दलितों के प्रति भ्रामक सामग्री को रखते हुए, समाज के उस वर्ग को बेनकाब किया गया है जो नहीं चाहता कि दलित आगे आये।
लोकतंत्र में सबको बराबरी का हक है लेकिन लोकतंत्र के चौथे खभ्भे ‘‘मीडिया” में एक शताब्दी बाद भी आज में दलितों की हिस्सेदारी एक प्रतिशत भी नहीं है। जागृत दलित समाज की मीडिया से यह दूरी क्यों ? क्या वह इससे जुड़ना नहीं चाहते ? या फिर उन्हें जुड़ने नहीं दिया जा रहा है? जुड़ भी जाते हैं तो क्या स्थिति रहती है। आजादी के 70 वर्षों बाद ऐसे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब को ढ़ूंढ़ने की कोशिश करती किताब ‘मीडिया में दलित‘ ध्यान खींचती हैं। मीडिया पर हुए राष्ट्रीय सर्वेक्षण से तो साफ है कि भारतीय मीडिया में फैसला लेने वाले पदों पर दलित न के बराबर हैं। दलितों-पिछड़ों की पत्रकारिता में हाशिये पर मौजूदगी के सवालों को भी लेकर चिंतित-व्यथित चिंतक वीरेंद्र यादव, अरुण खोटे, एस.आर.दारापुरी, उर्मिलेश, अम्बरीश कुमार, कौशल किशोर, ताहिरा हसन आदि के विचारों को पुस्तक में रखा गया है।
पुस्तक, लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया की भूमिका और दलितों के प्रति उपेक्षा को जबरदस्त तरीके से सामने लाती है और ध्यान खींचती हैं। पुस्तक दलितों के मसीहा बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर को समर्पित है। संजय कुमार ने समाज के सवालों को जोरदार, लेकिन सहज ढंग से रखा है। भाषा काफी सहज व सरल है। ‘मीडिया में दलित’ के तमाम आलेख समाज से सवाल करते हैं। हालांकि लेखक ने अपनी बात में साफ लिखा है कि उनका मकसद किसी जाति-धर्म-संप्रदाय को निशाना बनाना नहीं है बल्कि, भारतीय मीडिया पर ऊंची जाति का कब्जा जो शुरू से ही बरकरार रहा है उसे पाटते हुए बराबरी-गैरबराबरी के फासले को कम करना है।
देश की दलित आबादी के प्रति न्यूज रूम का रवैया और सरोकार किस तरह के हैं, कब दलित समाचारों में जगह बनाता है और कब उसे बाहर कर दिया जाता है, मीडियाकर्मियों के बीच दलितों का कुल अनुपात क्या है, क्यों नहीं दलित इस देश के मीडिया के मुख्यधारा के बीच जगह बना पा रहा है, दलित-वंचित वर्ग के कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा निकाली गयी पत्र-पत्रिकाओं की सच्चाई क्या है, उनकी व्याप्ति और सरोकार के स्तर क्या हैं.....इस तरह के अनेक सवालों से जूझते हुए, टकराते हुए, उन्हें खोजते हुए रश्मि प्रकाशन, लखनऊ ने संजय कुमार की पुस्तक मीडिया में दलित को प्रकाशित किया है। सबसे बड़ी बात की पूरी पुस्तक तथ्यात्मक होते हुए भी संवाद की भाषा में लिखी गयी है। इसे पढ़ते हुए लगता है, जैसे हम किसी बहस में शामिल हो रहे हों। देखा जाये तो मीडिया में दलितों की भागीदारी के सवालों को लेकर एक बहस दे जाती है यह पुस्तक।
पुस्तक : ‘मीडिया में दलित’
लेखक : संजय कुमार
प्रकाशक : रश्मि प्रकाशन,204,सनशाइन अपार्टमेंट,बी-4,कृष्णा नगर,
लखनऊ -226023
संस्करण : प्रथम, 2019
सहयोग राशि : रू. 200/-
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