उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने की तैयारी: जानिए क्या है सामान नागरिक संहिता, इससे क्या बदलेगा
भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने हिंदू कोड बिल का विरोध करते हुए कहा था कि जनता की राय को ध्यान में रखे बिना इस कानून को एकतरफा और मनमाने ढंग से लागू किया जा रहा है। उन्होंने कानून पर हस्ताक्षर करने से भी इनकार करने की धमकी दी थी।
पाँच राज्यों सहित उत्तराखंड (Uttarakhand) में विधानसभा चुनाव (Assembly Election) के दौरान प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी (CM Pushkar Singh Dhami) ने कहा था कि अगर भाजपा दोबारा सत्ता में आती है राज्य में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code -UCC) लागू किया जाएगा। मुख्यमंत्री बनते ही धामी ने UCC लागू करने के लिए एक उच्चस्तरीय कमिटी गठित करने के लिए कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। इस घोषणा के बाद मुस्लिम संगठनों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के नेतृत्व में भाजपा सरकार (BJP Government) देश में हिंदूवाद को स्थापित कर मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहती है।
ऐसा नहीं है कि भाजपा ने सत्ता में आते ही समान नागरिक संहिता की बात करना शुरू कर दिया है। भाजपा अपने अस्तित्व के समय से ही समान नागरिक संहिता की वकालत करती रही है। भाजपा के हर चुनावी घोषणा-पत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा प्रमुखता से रहा है और इसे लागू करने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराती रही है। भाजपा ही नहीं, आजादी के बाद कॉन्ग्रेस के राजेन्द्र प्रसाद और जेबी कृपलानी जैसे गणमान्य नेताओं ने भी देश में धर्म आधारित कानून का विरोध किया था।
कई मौकों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट भी समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कह चुका है और इस पर सरकार से जवाब तलब कर चुका है। संविधान का अनुच्छेद 44 भी देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कहता है। इसके बावजूद, संविधान के मूल भावना को दरअसल किनार कर देश में UCC का विरोध किया जाता रहा है और इसका सबसे प्रमुख कारण भारतीय राजनीति में मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का घुसपैठ है।
इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल का विरोध:
UCC की दिशा में उत्तराखंड सरकार के कदम का इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (IAMC) ने विरोध जताया है। काउंसिल का कहना है कि यह संविधान में दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। शरिया मुस्लिम मजहबी किताब कुरान पर आधारित है और इसे संहिताबद्ध नहीं किया जा सकता है। काउंसिल ने आरोप लगाया कि कर्नाटक के स्कूलों में बुर्का-हिजाब पर प्रतिबंध से स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिमों के साथ भेदभाव की जा रही है और हिंदू त्योहारों एवं धार्मिक ग्रंथों को स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा रहा है।
अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन स्थित IAMC के निदेशक रशीद अहमद ने कहा, “UCC भारत को एक हिंदू बहुसंख्यक देश में बदलने की दिशा में उठाया गया कदम है, जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाया जाएगा।हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा लंबे समय से इसका समर्थक रही है, क्योंकि वह मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यकों के धार्मिक प्रथाओं को खत्म करना चाहती है।”
UCC पर क्या कहता है संविधान:
इस्लामिक संगठन भले ही इसे संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता की अधिकार को खत्म करना बता रहा है, लेकिन उसी संविधान में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही गई है। 26 जनवरी 1950 को लागू किए गए संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से लेकर 51 तक राज्य के नीति निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है। ये निदेशक तत्व, मूल अधिकारों की मूल आत्मा कहे जाते हैं। अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को अनिवार्य बताया गया है। अनुच्छेद 44 में कहा गया है, “भारत पूरे देश में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को लागू करने का प्रयास करेगा।”
यहाँ बताना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद 37 में अनुच्छेद 44 में जैसे नीति निदेशक तत्व कानून की अदालत में अप्रवर्तनीय है, फिर भी देश के शासन में मौलिक है और कानून बनाकर इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य (भारत) का कर्तव्य है।
समान नागरिकता पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की टिप्पणी:
सुप्रीम कोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर हमेशा बल दिया है। मुस्लिम महिला शाह बानो के तीन तलाक उनका भरण-पोषण के लिए खर्चे के लिए दायर याचिका पर फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “दुख की बात है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 एक मृत पत्र बना हुआ है। एक समान नागरिक संहिता परस्पर विरोधी कानूनों के प्रति असमानता वाली निष्ठा को हटाकर राष्ट्रीय एकीकरण के उद्देश्य को पूरा करने में मदद करेगी।”
द्विविवाह में प्रसिद्ध केस सरला मुद्गल के फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता नहीं लाने के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार के रवैये पर निराशा व्यक्त की था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने साल 1954 में संसद में हिंदू कोड बिल लाया था, जिसके तहत हिंदू (बौद्ध, सिख, जैन आदि) के सिविल कानूनों को निर्धारित किया गया था।
जुलाई 2021 मे दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने हिन्दू मैरिज ऐक्ट 1955 से जुड़ी सुनवाई के दौरान देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर बल देते हुए केंद्र सरकार से इसके विषय में आवश्यक कदम उठाने के लिए कहा था। कोर्ट ने कहा था कि UCC के कारण समाज में झगड़ों और विरोधाभासों में कमी आएगी, जो अलग-अलग पर्सनल लॉ के कारण उत्पन्न होते हैं।
मायरा उर्फ वैष्णवी विलास शिरशिकर और दूसरे धर्म में शादी से जुड़ी 16 अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 19 नवंबर 2021 को सरकार से यूनिफॉर्म सिविल कोड के मामले में संविधान के अनुच्छेद 44 को लागू करने के लिए एक पैनल का गठन करने को कहा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था समान नागरिक संहिता काफी समय से लंबित है और इसे स्वैच्छिक नहीं बनाया जा सकता है।
कोर्ट ने कहा था, “इस मामले पर अनावश्यक रियायतें देकर कोई भी समुदाय बिल्ली के गले की घंटी को बजाने की हिम्मत नहीं करेगा। यह देश की जरूरत है और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वो नागरिकों के लिए यूसीसी को लागू करे और उसके पास इसके लिए विधायी क्षमता है।”
समान नागरिक संहिता पर बाबा साहेब अंबेडकर और राजेंद्र प्रसाद की राय:
75 साल पहले बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि समान नागरिक संहिता को ‘विशुद्ध रूप से स्वैच्छिक’ नहीं बनाया जा सकता है। उन्होंने उस दौरान भी अल्पसंख्यक समुदाय के डर और आशंकाओं को देखते हुए यह बात कही थी।
संसद में साल 1954 में हिंदू कोड बिल पर बहस के दौरान समाजवादी नेता जेपी कृपलानी ने कॉन्ग्रेस सरकार पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि यह सरकार केवल हिंदुओं के लिए विवाह के कानून ला रही है और मुस्लिमों के लिए नहीं। उन्होंने मुस्लिमों के लिए ऐसे ही मुस्लिम बिल लाने के लिए कहा था कि मुस्लिम महिलाओं को भी सशक्त बनाया जा सके।
भारत के पहले और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भी हिंदू कोड बिल का जोरदार विरोध किया था। राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि इस तरह के कानून जनता की राय को ध्यान में रखे बिना एकतरफा और मनमाने ढंग से बनाया जा रहा है। उन्होंने कानून पर हस्ताक्षर करने से भी इनकार करने की धमकी दी। इसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और राष्ट्रपति के बीच टकराव की स्थिति आ गई थी।
पंडित नेहरू समान नागरिक संहिता का किया था विरोध:
हिंदू कोड पर संसद में बहस के दौरान दौरान जब समान नागरिक संहिता की बात हुई तो प्रधानमंत्री नेहरू ने इस पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा था कि इसके लिए अभी सही समय नहीं आया है, क्योंकि मुस्लिम इसके लिए तैयार नहीं हैं।
पंडित नेहरू ने संसद में समान नागरिक संहिता के बजाए हिंदू कोड बिल का बचाव करते हुए कहा था, “मुझे नहीं लगता कि वर्तमान समय में भारत में इसे लागू करने का समय आया है। जब हिंदू कोड बिल के माध्यम से देश की 80% से अधिक जनता के लिए व्यक्तिगत कानून के तहत लाया जा चुका है तो भारत में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने का कोई औचित्य नहीं है।”
क्या है समान नागरिक संहिता और क्यों मुस्लिम करते हैं विरोध:
समान नागरिक संहिता को सरल अर्थों में समझा जाए तो यह एक ऐसा कानून है, जो देश के हर समुदाय पर समुदाय लागू होता है। व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो, जाति का हो या समुदाय का हो, उसके लिए एक ही कानून होगा। अंग्रेजों ने आपराधिक और राजस्व से जुड़े कानूनों को भारतीय दंड संहिता 1860 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872, भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872, विशिष्ट राहत अधिनियम 1877 आदि के माध्यम से सब पर लागू किया, लेकिन शादी, विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, संपत्ति आदि से जुड़े मसलों को सभी धार्मिक समूहों के लिए उनकी मान्यताओं के आधार पर छोड़ दिया।
इन्हीं सिविल कानूनों को में से हिंदुओं वाले पर्सनल कानूनों को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने खत्म किया और मुस्लिमों को इससे अलग रखा। हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं के तहत जारी कानूनों को निरस्त कर हिंदू कोड बिल के जरिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिंदू नाबालिग एवं अभिभावक अधिनियम 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 लागू कर दिया गया। वहीं, मुस्लिमों के लिए उनके पर्सनल लॉ को बना रखा, जिसको लेकर विवाद जारी है। इसकी वजह से न्यायालयों में मुस्लिम आरोपितों या अभियोजकों के मामले में कुरान और इस्लामिक रीति-रिवाजों का हवाला सुनवाई के दौरान देना पड़ता है।
इन्हीं कानूनों को सभी धर्मों के लिए एक समान बनाने की जब माँग होती है तो मुस्लिम इसका विरोध करते हैं। मुस्लिमों का कहना है कि उनका कानून कुरान और हदीसों पर आधारित है, इसलिए वे इसकी को मानेंगे और उसमें किसी तरह के बदलाव का विरोध करेंगे। इन कानूनों में मुस्लिमों द्वारा चार शादियाँ करने की छूट सबसे बड़ा विवाद की वजह है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी समान नागरिक संहिता का खुलकर विरोध करता रहा है।
गोवा में लागू है UCC:
देश भर में समान नागरिक संहिता को लागू करने की माँग दशकों से हो रही है, लेकिन देश में गोवा अकेला ऐसा राज्य है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है। गोवा में वर्ष 1962 में यह कानून लागू किया गया था। साल 1961 में गोवा के भारत में विलय के बाद भारतीय संसद ने गोवा में ‘पुर्तगाल सिविल कोड 1867’ को लागू करने का प्रावधान किया था। इसके तहत गोवा में समान नागरिक संहिता लागू हो गई और तब से राज्य में यह कानून लागू है।
पिछले दिनों गोवा में लागू यूनिफॉर्म सिविल कोड की तारीफ सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस ए बोबड़े ने भी की थी। सीजेआई ने कहा था कि गोवा के पास पहले से ही वह है, जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने पूरे देश के लिए की थी।
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