न लालू..न नीतीश..न मोदी चाहिए, बिहार-यूपी को आठ-दस संप्रदा बाबू चाहिए
संपद्रा होना इतना आसान नहीं था । अल्केम के लिए पत्नी का मंगलसूत्र बेच देना । ग़ैरियत के लिए पटना में छाता बेचना ( 25 बीघा खेतिहर बाप का बेटा होने के वाबजूद ...वो भी 70 के दशक में ) । बिहार में घूम-घूमकर डॉक्टरों से दवाई लिखने के लिए कहना । तब..जब MR वाला टर्म भी नहीं था। और...देखते-देखते पहले नेशनल से मल्टीनेशनल फिर फोबर्स की लिस्ट में आ जाना । अदभुत कहानी है संपद्रा बाबू की ।
सत्य प्रकाश की रिपोर्ट :-
सोचिए...अगर संपद्रा बाबू का जन्म गुजरात में हुआ होता। सोचिए...अगर वो पंजाब में पैदा हुए होते। फिर मेडिसिन की दुनिया में रेनबैक्सी और दूसरे ग्रुप का कम अल्केम का झंडा हर तरफ होता। फोर्टिस और मैक्स जैसे अस्पताल अल्केम (संप्रदा सिंह जी की कंपनी) के पास होते । कभी पटना में पढ़ते-रहते मैंने संपद्रा सिंह के बारे में नहीं सुना कि “देखो..देखो कौन आया ?...बिहार का शेर आया..। जबकि बीएन कॉलेज के एक कार्यक्रम में संपद्रा, अर्जुन सिंह और लालू यादव तीनों को मैंने सुना...और देखा। लेकिन जयकार उसकी लगी जिसने पूरे बिहार के समाज को सोध (चूना लगा) दिया। मंच के नीचे खड़े होकर जयकारा...सुना भी तो...उन जातिवादी करैतों के लिए जिन्होंने पूरे बिहार को ऐसा डसा कि पता ही नहीं चला कि कब इस पूरे समाज की सांस उखड़ गई । अब ये नहीं पता चल पा रहा कि जातिपाहिज की हुकहुकी में फंसा ये समाज बाहर कब निकलेगा ?
भले संपद्रा सिंह का नाम संपद्रा यादव होता...मेरे लिए वो तब भी अहम होते। संपद्रा महतो होता...तब भी । संपद्रा पासवान होता...तो भी। संपद्रा कुशवाहा होता..फिर भी। लेकिन वो संप्रदा होता। अभी कुछ दिनों पहले मैंने अपने गांव के कुछ लड़कों की तस्वीरें लंदन-पेरिस में घूमते हुए देखी । एफिल टावर पर पोज वाली तस्वीरें देख...पहले तो आश्चर्य हुआ...लेकिन सेकंड बाद ही उससे ज्यादा कहीं खुशी हुई। लगा एफिल टावर पर उसकी वाहें मुझे भी पुकार रही है। वो सिर्फ उसकी बाहें न हो मेरी भी बाहें हो। उसके पैर में मेरी भी सफलता के जूते हों। बाद में पता चला वो सारे लड़के जो नब्बे के दशक में असामाजिक जातिवादी शासन व्यवस्था की भेंट चढ़ गए थे...उनमें से कई की घर वापसी...अल्केम ने कराई।
कोई दूसरी कंपनी में भी बड़ी पोस्ट पर गया तो...शुरूआत अल्केम से की। आरोप लगते हैं कि संपद्रा सिंह की कंपनी में बायोडेटा की पहली शर्त होती थी कि आप जाति से भूमिहार हों । वैसे मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो यादव हैं, कुशवाहा हैं और अल्केम में ऊंचे ओहदे पर हैं। लेकिन फिर भी...अल्केम में काम करने वाले ज्यादातर लड़के भूमिहार हैं...ऐसा बिहार में लोग कहते हैं। मेरे पास इस बात के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं...इसलिए मैं ये दावे से नहीं कह सकता कि ऐसा नहीं होगा। लेकिन एक क्षण के लिए मान लीजिए कि क्या हुआ अगर भूमिहार को ही नौकरी दे...दी तो। उसे लेबर बनने से तो रोका। लालू जी ने तो अपनी पार्टी के टिकट बांटने के समय शायद खुला ऐलान कर दिया था...कि किसी भूमिहार को टिकट नहीं दूंगा। प्रभुनाथ सिंह की भरी सभा में लालू जी की तरफ से की गई बेईज्जती कुछ स्थानीय पत्रकारों से मैंने सुनी। कितना सच...कितना झूठ पता नहीं। लेकिन अगर ये सही है तो एक राजनेता होते हुए जब लालू जी ने डंके की चोट पर ऐसा किया। जग्गनाथ मिश्रा जी ने बोर्ड ऑफिस और इंटर काउंसिल को मैथिल ब्राह्मण रिहैविटेशन सेंटर बना दिया...। महामाया प्रसाद ने घर-घर से लालाओं को खोजवा कर अप्वाइंटमेंट लेटर बांटे। छोटे बाबू (सतेन्द्र बाबू) ने राजपूतों को हर थाने में तैनात कर दिया। श्री बाबू ने...खोज-खोज भूमिहार हेडमास्टर बनाए। तो फिर संपद्रा सिंह ने क्या गलत किया। पूरे राजनेताओं के झूंड में इस मामले में पूरा बिहार एक ही इंसान का कायल है और रहेगा। वो हैं कर्पूरी ठाकुर। जिन्होंने...अपनी जाति की कहीं ज्यादा उपेक्षा की । अपने परिवार की उससे भी ज्यादा। परिवार को दरकिनार करने के मामले में दूसरे नंबर पर नीतीश दिखते हैं...आगे क्या होगा पता नहीं।
लेकिन बात संपद्रा सिंह की हो रही ...जिन्होंने अपनी अरजी हुई कंपनी में ऐसा किया तो आप उसे उस बिहार में कैसे सिर्फ एक ही कसौटी पर तौल सकते हैं...जहां धड़कन सुनने पर जाति का पता चलता है। वैसे पता नहीं...संपद्रा सिंह ने कितना भूमिहारवाद किया। लेकिन आरोप है...और इसलिए मैंने लिखा कि...कितना अच्छा होता...हमारे बीच कोई लालू यादव, कोई जगन्नाथ मिश्र न होता...संपद्रा यादव या संपद्रा मिश्रा ही होता। भले वो बिहार के यादवों और मिश्राओं को ही खूब रोजगार देता। संपद्रा कुशवाहा ही होता जो कुशवाहा को रोजगार देता। किसी स्तर पर तो इस जातिवाद का रत्ती भर फायदा होते देखते...मन को लगता कि जिस ‘वाद’ का सबसे बड़ा चलन अपने समाज में देखा...उसका ये फायदा तो है।
ख़ैर...संपद्रा होना इतना आसान नहीं था। अल्केम के लिए पत्नी का मंगलसूत्र बेच देना। ग़ैरियत के लिए पटना में छाता बेचना (25 बीघा खेतिहर बाप का बेटा होने के वाबजूद ...वो भी 70 के दशक में)। बिहार में घूम-घूमकर डॉक्टरों से दवाई लिखने के लिए कहना। तब..जब MR वाला टर्म भी नहीं था। और...देखते-देखते पहले नेशनल से मल्टीनेशनल फिर फोबर्स की लिस्ट में आ जाना। अदभुत कहानी है संपद्रा बाबू की। सोचिए अगर उनकी कंपनी में रोजगार पाने वाले युवक...रोगजार न पाते तो कितने और भुटकुन शुक्ला होते, शहर-शहर कितने मिनी नरेश होते, और हर इलाके में एक नया छोटन शुक्ला होता। जहानाबाद-गया के सैकड़ों भूमिहार लड़के 90 के दशक में खड़ी रणवीर सेना को पाल-पोस रहे होते। ऐसे हजारों परिवारों को एक संपद्रा सिंह ने बचा लिया। काश ऐसे 10-20 और होते। लेकिन हाय से बिहार का समाज...बेटा जन्मा तभी उसके संस्कार का बखान पंडित जी से ये पूछकर होता है कि कलेक्टर/एसपी...या डॉक्टर-इंजीनियर बनेगा कि नहीं। बेटी के नामकरण में भी पंडित जी यही बताते हैं कि कलेक्टर/एसपी के यहां जाएगी की नहीं (ब्याह कलेक्टर-एसपी के घर में होगा)। कोई पंडित जी से ये नहीं पूछता कि मेरा बेटा संपद्रा सिंह..किंग महेन्द्र या अनिल अग्रवाल जैसा होगा कि नहीं। काश...चार दशक पहले ये समझ में आ गया होता...तो आज PHD करके ठकुरटोली के पप्पू दा...नोएडा के बड़का मॉल में गार्ड न होते। सामने देखकर...कन्नी न काटते। न लजाते...न लजाने देते। लेकिन गलती पप्पू दा की नहीं। गलती परवरिश की है। जिसमें हमने यहीं सुना....पढ़ाई मतलब नौकरी। नौकरी मतलब सरकारी...खेती मतलब तरकारी। नौकरी प्राइवेट है और आप 7-8 लाख महीने का पा रहे हैं तो भी बिहार में लोग यही कहेंगे कि बाल-बच्चे को पाल रहा है। मतलब हमारे समाज की नजर में हम कामचलाउ हैं। अगर सरकारी नौकरी में हैं...भले चपरासी-कलर्क या पुलिस में भी हैं तो तीसमार खां हैं। चाहे जिंदगी भर क्लर्क ही क्यों न रह जाएं। सिपाही जी ही क्यों न रह जाएं।
ऐसा ही हमारा समाज है। हमलोगों ने जब भी बिहार में पैसे वालों के बारे में सुना...ये नहीं सुना कि वो कैसे आगे निकला। उसके उद्योग–धंधों के बारे में नहीं बताया गया। कैसे वो बीवी के गहने बेचकर कब आगे बढ़ निकला...ये किस्सा किसी ने नहीं सुनाया। कहां छाता बेचा ? कहां घड़ी बेची ? किसी को मतलब नहीं। बल्कि ऐसे ज्यादातर लोगों के बारे में जब भी सुना तो ज्यादातर यही सुना कि फलां एक नंबर का चोर है साला। कभी गुजरात में मुकेश और अनिल भाई के बारे में बोलकर देखिएगा। वडोदरा या जामनगर के चौराहे पर बोलकर देखिए। हो सकता है रिक्शा वाले भी घेर लें। लेकिन हमलोग इसलिए सिर्फ गाली देते रहते हैं...देते रहे हैं कि वो हमसे आगे निकल गया। अरे...तुम भी निकलो...जो निकल गया वो चोर कैसे हो गया? चोर तो वो कलेक्टर/एसपी ज्यादा है..जिसने...दुख्खम-सुख्खम में पढ़ाई की...सिस्टम में घुस गया...लेकिन जब लौटाने की बारी आई तो मौका देख कर निकल गया। जिले में बैठकर आय प्रमाण पत्र और निवास प्रमाण पत्र देने के लिए भी घूस का पैसा खाने लगा। जिन असहाय और गरीबों के बीच से निकला उन पर ही रौब की झड़ी लगा दी। पहले अपने गांव को छोड़ा, फिर अपने गवार को...आगे अपने प्रदेश को....। थोड़ा और आगे बढ़ा तो अपने संस्कार...अपनी बोली, अपनी संस्कृति सब छोड़ दी। किसी ने गाजियाबाद का पासपोर्ट बना लिया। किसी ने नोएडा का। किसी ने दिल्ली का। किसी ने हैदराबाद का। किसी ने मुंबई का। कुछ को तो मरना भी हुआ तो बक्सर से गाजियाबाद रेल में कटने आ गया। मतलब काली कमाई...और कलह दोनों के लिए परदेसिया ही बना (सारे IAS/IPS ऐसे नहीं)।
संपद्रा सिंह और किंग महेन्द्र ने तो जो कमाया कंपनी बनाकर सबके सामने। डंके की चोट पर बिहारी बनकर रहा...पूरी दुनिया में बिहारी बनकर ही घूमा। रही बात नेताओं-नौकरशाहों को घूस खिलाने की...डॉक्टर्स को कमीशन खिलाने की...तो इसे तो हमने-आपने ही सिस्टम की धमनियों में दौड़ा रखा है। नहीं तो 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रेमचंद्र का लोकप्रिय शीर्षक नमक का दारोगा न होता। और...इतने चाव से चाचाजी इसे न पढ़ाते । वो वाला हिस्सा खूब स्ट्रेस देकर...कि ‘सैलरी..और ऊपर की कमाई में अजोरिया- अन्हरिया (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष) वाला अंतर है ।
ख़ैर...आप कहेंगे कि विषयान्तर हो गए। नहीं भई...बिल्कुल विषय पर हूं । संपद्रा सिंह ने खूब कमाया (बिहार की भाषा में खूब लूटा)। सवाल ये है कि किसने छोड़ दिया। इसलिए इन्हीं दो में से चुनना है तो संपद्रा सिंह/यादव/ साव/ कुशवाहा को क्यों न चुनें। कम से कम बिहार के हजारों लोगों को जलालत से तो इन्होंने बचाया। बाकी लोगों ने तो 10 करोड़ लोगों को भी जोकर बनाया, बिहारी को दिहाड़ी का पर्यायवाची बना डाला। इसलिए फिर से कह रहा...जब तक सूरज चांद रहेगा...संपद्रा तेरा नाम रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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