नीतीश की राजनीतिक फजीहत
2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद उन्होंने अपने ' जानी दुश्मन ' लालू प्रसाद से राजनीतिक गठजोड़ किया और 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को धूल चटा दी। इन दिनों उनका " संघमुक्त भारत " और " मिटटी में मिल जाऊंगा, भाजपा से हाथ नहीं मिलाऊँगा " जैसे जुमले खूब लोकप्रिय हुए । लेकिन अपने ही वचनों की ऐसी -तैसी करते हुए जुलाई 2017 में वह एक दफा फिर भाजपा की गोद में जा बैठे । संभव है नीतीश कुमार की कुछ मजबूरियां हों ,लेकिन उसे उनका गलत फैसला माना गया। सामाजिक-राजनीतिक विशेषज्ञ प्रेम कुमार मणि की रिपोर्ट ।
नए केंद्रीय मंत्रिमंडल का नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गठन हुआ और नीतीश कुमार की पार्टी जनतादल यूनाइटेड उससे बाहर रह गयी . खबरों के अनुसार नीतीश अधिक बर्थ चाहते थे . भाजपा सांकेतिक प्रतिनिधित्व देना चाहती थी . अनबन हुई ,और नीतीश की पार्टी बाहर रह गयी . कुछ लोग ऐसे फैसलों को बगावत और क्रांति भी बता देते हैं . जाहिर है चापलूस मक्खन लगाने के उपाय ढूँढ ही लेते हैं .
पूरे मामले पर विचार करने पर मुझे नीतीश कुमार दयनीय दिखे . इसी भाव की एक तस्वीर कल के इंडियन एक्सप्रेस में साया हुई है ,जो पटना में एक रोज बाद ,यानी आज मैंने देखी है . भाजपा अध्यक्ष के आवास पर भूपेंद्र यादव के पास नीतीश हताश -हाल खड़े हैं . नीतीश का वह जमाना हमने देखा है ,जब वह अटल -आडवाणी के नजदीक मित्र- भाव से बैठते थे . दूसरे -तीसरे नंबर के भाजपा नेता तो उनके पास सहज ही नहीं रह पाते थे . इन लोगों में प्रधानमंत्री मोदी भी थे . लेकिन यह सब समय -समय की बात है . कभी नाव गाडी पर ,कभी गाडी नाव पर .
नीतीश जी मित्र रहे हैं और कभी हमने साथ -साथ थोड़ी राजनीति भी की थी . राजनीति ,यानि राजनीतिक संघर्ष . संघर्ष और सत्ता के साथी अलग -अलग होते हैं . जब वे राजसत्ता में आये ,हमारी नहीं बनी और आज हम राजनीतिक स्तर पर अलग -अलग हैं . लेकिन नीतीश कुमार की निर्मिति जिन अवयवों से हुई है ,उसे बहुत कुछ जानता हूँ . तबियत से वह समाजवादी हैं और जैसा कि एक मुहावरा है नेचर और सिग्नेचर जल्दी नहीं बदलते . तो नीतीश भी कुछ मुद्दों पर बहुत नहीं बदलेंगे ,यही उम्मीद है .
1994 में वह बिहार जनता दल से जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में अलग हुए .फिर अलग एक पार्टी बनी थी समता पार्टी . 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित हो जाने के बाद जब मैंने भाजपा के साथ सहयोग की संभावनाओं की बात उठायी तब उनका त्वरित जवाब था - " जहर खा लेना पसंद करूँगा ,भाजपा के साथ राजनीति नहीं करूँगा ." कुछ माह बाद जब उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और भाजपा एक साथ हुए ,तब नीतीश भी डुले और 1996 का लोकसभा चुनाव उनने भाजपा के साथ हो कर लड़ा .यानी ज़हर खाकर राजनीति की . शायद यह ज़हर नहीं अफीम था ,जिसका असर लम्बे समय तक रहा , 13 जून 2013 तक . उस रोज इन्ही नरेंद्र मोदी को आगे करने के सवाल पर उनने भाजपा से कुट्टी कर ली ,क्योंकि 10 जून को मोदी को उनकी पार्टी ने आगामी चुनाव केलिए प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया था .
2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद उन्होंने अपने ' जानी दुश्मन ' लालू प्रसाद से राजनीतिक गठजोड़ किया और 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को धूल चटा दी . इन दिनों उनका " संघमुक्त भारत " और " मिटटी में मिल जाऊंगा, भाजपा से हाथ नहीं मिलाऊँगा " जैसे जुमले खूब लोकप्रिय हुए . लेकिन अपने ही वचनों की ऐसी -तैसी करते हुए जुलाई 2017 में वह एक दफा फिर भाजपा की गोद में जा बैठे . संभव है नीतीश कुमार की कुछ मजबूरियां हों ,लेकिन उसे उनका गलत फैसला माना गया . अब उसी राजनीति के तहत उन्होंने इस बार के लोकसभा चुनाव में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है .लेकिन इतिहास में यह भी ,ऐसा भी होता है कि कोई जीत किसी हार से भी बदतर हो जाती है . मान सिंह जीतकर भी कुत्सित रहा और राणाप्रताप हार कर भी अमर है . इस बार की जीत में नीतीश कहीं नहीं हैं . इसीलिए मैंने नतीजा आने के रोज ही प्रतिक्रिया दी थी कि इस जीत के बावजूद नीतीश के चेहरे पर उदासी क्यों हैं ? उदासी की व्याख्या कल हुई जब वह स्वयं को अलग -थलग पा रहे हैं .
मेरी समझ से नीतीश को शुरू में ही मंत्रिमंडल से अलग रहने की घोषणा इस आधार पर कर देनी चाहिए थी कि भाजपा को स्पष्ट बहुमत है और वह सरकार बनावे . हम मुद्दों के आधार पर समर्थन देंगे .क्योंकि कुछ मुद्दों पर हमारे विचार भिन्न हैं . उनके सहकर्मियों ने भी उन्हें यह सुझाव दिया या नहीं ,मैं नहीं जानता . भाजपा को स्पष्ट बहुमत है और उसे सरकार बनाने केलिए किसी के सहयोग की दरकार बिलकुल नहीं है . ऐसे में वह अपने मित्र दलों का एक -एक प्रतिनिधि मंत्रिमंडल में रखता है ,तो यह उसकी उदारता कही जाएगी . अब कोई यह कहे कि भूटान का भी एक राजदूत और चीन का भी एक ही राजदूत कैसे ? तो ऐसे व्यक्ति को क्या कहा जायेगा ? संख्या बल के आधार पर हिस्सेदारी की मांग मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है . लेकिन इतनी बड़ी गलती नीतीश जैसे मंजे हुए नेता से कैसे हुई ,यह स्वयं में एक सवाल है . उनकी स्थिति बहुत कुछ वैसी हो गयी ,जैसी 1980 में हेमवतीनंदन बहुगुणा की हुई थी . यह एक संकेत है जो उन्हें मिला है . बिस्तुइया-पात जैसा . नीतीश के पास अभी समय है कि वह खुद को संभाल सकें . मैं समझता हूँ कि बिहार की राजनीति में भाजपा लालू से निबट चुकी ,अब वह नीतीश से निबटना चाहेगी . वह एक विचारधारा की राजनीति कर रही है . नीतीश धारा 370 वगैरह पर अपना स्टैंड नहीं बदल रहे हैं ,यह भाजपा को कैसे सह्य होगा . वह चाहेगी कि नीतीश भी रामविलास पासवान की तरह पालतू बन जाएँ . वन्दे मातरम और जयश्रीराम के जयकारों में भागीदार हों और भाजपा के वैचारिक -सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के हिस्सा बन जाएँ . प्रधानमंत्री की किसी सभा में वन्दे मातरम पर नीतीश चुपचाप बैठे रहे . इस तरह की नौटंकियों से वह परहेज करते रहे हैं .लेकिन अभी जिस नाटक -मंडली में वह शामिल हुए हैं ,वहां तो बस वन्दे मातरम से जयश्रीराम की यात्रा है . नीतीश जल में रहकर मगर से बैर कैसे कर सकते हैं ? अब तो मगर मामूली नहीं है ,मुल्क का पीएम है .
इन पंक्तियों के लिखे जाने के बीच मुझे एक मित्र ने फोन पर पूछा -'नीतीश अब भाजपा से कैसा व्यवहार करेंगे ? ' मुझे एक लोककथा का स्मरण हुआ ,जिसमे जंगल जा रहे एक आदमी से दूसरे ने पूछा था ,यदि बाघ मिल जायेगा तो क्या करोगे ? जंगल जा रहे आदमी ने कहा -' मैं क्या करूँगा .जो करना होगा ,वह तो बाघ करेगा . ' नीतीश -भाजपा प्रकरण में अब जो करना है ,भाजपा को करना है . नीतीश ,आज उसके लिए भार बन गए हैं ,न कि साधन . भाजपा की दिली ख्वाइश उनसे छुट्टी पाने की होगी . वह इसी का इंतजार करेगी . नीतीश यदि बाहर निकलने का कोई मर्यादित रास्ता ढूंढते हैं ,तो यह उनका राजनीतिक चातुर्य कहा जायेगा .
Comments (0)