मोदी की ऐतिहासिक पत्रकार-परिषद्

जब भाजपा अध्यक्ष ने भाजपा कार्यालय में पत्रकार परिषद बुलाई तो दिल्ली के पत्रकारों के बीच यह खबर आग की तरह फैल गई कि प्रधानमंत्री मोदी भी उसमें बोलेंगे। सारे पत्रकार गदगद हो गए। उन्हें लगा कि यह ऐसा चमत्कार है, जैसा कि बांझ स्त्री के पुत्र पैदा होने की खबर आ जाए। बड़े-बड़े नामी-गिरामी पत्रकार भी पहुंच गए। लेकिन हुआ क्या ?

मोदी की ऐतिहासिक  पत्रकार-परिषद्

नरेंद्र मोदी भारत के ऐसे पहले और एकमात्र प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में एक भी प्रेस-काॅन्फ्रेंस नहीं की। उम्मीद बंधी थी कि अपने प्रधानमंत्री की अवधि के अंतिम दौर में वे कम से कम एक बार तो पत्रकारों से मुखातिब होंगे, पत्रकार-परिषद करेंगे। जब भाजपा अध्यक्ष ने भाजपा कार्यालय में पत्रकार परिषद बुलाई तो दिल्ली के पत्रकारों के बीच यह खबर आग की तरह फैल गई कि प्रधानमंत्री मोदी भी उसमें बोलेंगे। सारे पत्रकार गदगद हो गए। उन्हें लगा कि यह ऐसा चमत्कार है, जैसा कि बांझ स्त्री के पुत्र पैदा होने की खबर आ जाए। बड़े-बड़े नामी-गिरामी पत्रकार भी पहुंच गए। लेकिन हुआ क्या ? उन्हें मोदी का भाषण उसी तरह सुनना पड़ा, जैसे भाजपा के कार्यकर्त्ता या संघ के स्वयंसेवक सुनते हैं। जब उनसे एक-दो पत्रकारों ने सवाल किए तो उन्होंने कहा कि ‘हम पार्टी के अनुशासित सिपाही हैं, हमारे यहां अध्यक्ष ही सब कुछ होते हैं।’ वाह क्या खूब ? मोदी के इस दावे पर क्या अमित शाह भी भरोसा कर सकते हैं ? यदि अध्यक्ष ही सब कुछ होता है तो वे इस पत्रकार परिषद में आए ही क्यों ? वे यहां क्या करने आए थे ?

यह पत्रकारों का दोष है कि उन्होंने इसे मोदी की पत्रकार परिषद् समझ लिया। वे तो वहां हमेशा की तरह भाषण झाड़ने गए थे। उन्होंने अमित शाह के पहले ही उसे झाड़ दिया। उन्होंने शाह के रंग को भी बेरंग कर दिया। मैंने उसे यू-ट्यूब पर अभी सुना। वह भाषण था या कोई बेसिर-पैर की गपशप थी। इस गपशप के लिए ‘झाड़ना’ शब्द ही उचित है। आश्चर्य है कि मोदी ने पत्रकारों से बातचीत का यह अवसर हाथ से क्यों निकल जाने दिया ? अब तो सिर्फ 59 सीटों पर ही चुनाव बचा था। यदि किसी सवाल का जवाब मोदी ऐसा दे देते, जैसा प्रज्ञा ठाकुर ने दिया था तो भी उन्हें क्या खतरा हो सकता था ? 300 सीटें तो उनकी पक्की ही हैं। दो-चार सीटें कम हो जातीं तो क्या फर्क पड़ता ? कम से कम लोकतंत्र की महान परंपरा जीवित हो जाती। लेकिन मोमिन ने क्या खूब कहा है कि 
"इश्के-बुंता में जिंदगी गुजर गई मोमिन। 
आखरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे ।।"

पत्रकार-परिषद् से कोई नेता अगर लगातार अपनी खाल बचाता चला जाए तो उसके बारे में क्या राय बनती है ? क्या यह नहीं कि वह गैर-जवाबदेह है ? वह उत्तरदायी नहीं है ? वह अपने आप को ‘प्रधान सेवक’ तो क्या साधारण जवाबदार व्यक्ति तक नहीं समझता। कोई सेवक ऐसा भी हो सकता है, जो सिर्फ बोलता ही बोलता हों। किसी की भी नहीं सुनता हो। न अपने मंत्रियों की, न पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की, न पत्रकारों की, न जनता की। हो सकता है कि यह सेवक बेहद डरपोक हो। उसे डर लगता हो कि सवाल-जवाब की भूल-भुलैया में वह कहीं फंस न जाए, फिसल न जाए, गुड़क न जाए। देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति का इतना डरपोक होना अपने आप में एक एतिहासिक घटना है।