कानून बनाने में जल्दबाजी क्यों ?

सत्तारुढ़ दल के पास स्पष्ट बहुमत है, इसका अर्थ यह नहीं कि विपक्ष की परवाह ही, न की जाए। विपक्ष के अनुभवी और योग्य सांसदों की राय का लाभ लेने से सत्तापक्ष अपने आप को वंचित क्यों करे ? 

कानून बनाने में जल्दबाजी क्यों ?

भाजपा सरकार बधाई के पात्र है कि उसने अंग्रेज के बनाए हुए घिसे-पिटे और बेकार कानूनों को रद्द करना शुरु कर दिया है। पिछले पांच वर्षों में भाजपा सरकार ने पिछले सौ-डेढ़ सौ साल पहले बने लगभग डेढ़ हजार कानूनों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया है। नई संसद के इस पहले सत्र में ऐसे 58 कानूनों को सुधारा गया है या रद्द किया गया है। अब राज्य सरकारें भी ऐसे लगभग 225 कानूनों के खिलाफ कार्रवाई करेंगी। नई संसद के इस पहले सत्र में दूसरी अच्छी बात यह हुई कि 30 दिन में 20 कानून पास हो गए और तीसरी बात यह हुई कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को विपक्ष ने भी उचित सम्मान दिया।

संसद की कार्रवाई सदभावनापूर्ण वातावरण में चलती रही लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि महत्वपूर्ण विधेयकों को क्या इतनी जल्दबाजी में पास कर दिया जाना चाहिए ? यदि विपक्ष के सांसद उन्हें विभिन्न संसदीय कमेटियों के विचारार्थ भिजवाने का आग्रह कर रहे हैं तो उसमें गलत क्या है ? संसदीय समितियों में इन विधेयकों की चीर-फाड़ बहुत ही शांत और गंभीर ढंग से की जाती है। विशेषज्ञों से राय ली जाती है। वहां अपनी राय जाहिर करते वक्त सांसद लोगों को अखबारों में छपास और टीवी चैनलों पर दिखास का लालच नहीं रहता। इसमें शक नहीं है कि इस प्रक्रिया से गुजरते तो 30 दिन में 20 तो क्या, शायद 5-7 कानून ही पास होते लेकिन इतनी खात्री रहती कि सभी सांसदों को संतोष होता और उन कानूनों में खामियों की गुंजाइश कम से कम रहती। सत्तारुढ़ दल के पास स्पष्ट बहुमत है, इसका अर्थ यह नहीं कि विपक्ष की परवाह ही, न की जाए। विपक्ष के अनुभवी और योग्य सांसदों की राय का लाभ लेने से सत्तापक्ष अपने आप को वंचित क्यों करे? 


यह ठीक है कि तीन-तलाक जैसे विधेयकों पर पिछली संसद की कमेटियों ने विचार कर लिया था, उन्हें फिर से द्राविड़ प्राणायाम करवाने की जरुरत नहीं थी लेकिन सूचना के अधिकार के कानून में जो संशोधन किया गया है, वह निर्विवाद नहीं है। यदि सूचना अधिकारियों का वेतन और कार्यकाल सरकार पर निर्भर हो गया तो उनकी स्वायत्तता का क्या होगा ? उन्हें तो न्यायाधीशों की तरह स्वतंत्र रखा जाना चाहिए। अभी इस कानून पर राज्यसभा में मुहर लगनी है। आशा है कि राज्यसभा के वरिष्ठ और अनुभवी सांसद इन विधेयकों को काफी सोच-समझकर पारित करेंगे। विपक्ष से भी यही आशा की जाती है कि वह फिजूल के अंड़गे लगाने की बजाय ऐसे ठोस और रचनात्मक सुझाव देगा कि सरकार उन्हें मानने के लिए सहर्ष तैयार हो जाए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)