... तो आ जाओ

दलबदल का मकसद कहीं गहरा है। ''तो आ जाओ" के होर्डिंग लगाकर जो बैठे हैं, वे दरअसल भारत में संसदीय जनतंत्र को समाप्त करना चाहते हैं। जब निर्वाचित प्रतिनिधियों की इन कारगुजारियों के चलते मतदाता उनमें विश्वास खो बैठेंगे, तब क्या होगा?

... तो आ जाओ

ललित सुरजान

कुछ दिन पहले सड़क किनारे एक विशालकाय होर्डिंग पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखी इबारत देखने को मिली। ''अगर कॉमर्स पढ़ना चाहते हो तो आ जाओ। यह होर्डिंग, जाहिर है कि एक कोचिंग संस्थान का था। इस संदेश को पढ़कर पहला ख्याल यही आया कि देश में सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर देना चाहिए। कोचिंग संस्थाओं के मालिक ही देश की नई पीढ़ी का प्रगति पथ प्रशस्त करने के लिए पर्याप्त हैं। तकरीबन पच्चीस साल पूर्व कोचिंग संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाने पर, उन पर नियंत्रण रखने के बारे में संसद और समाज में बहस होती थी जो अब नहीं होती। हम अपने बच्चों को इस या उस ''सर" के हवाले कर निश्चिंत हो गए हैं। लेकिन मेरा मकसद इस समय शिक्षा प्रणाली पर चर्चा करने का नहीं, बल्कि इस लुभावने आमंत्रण को पढ़कर मन में जो विचार उठे, उन्हें आपसे साझा करना है।

''... तो आ जाओ" के आह्वान पर मैं कोचिंग संस्था और शिक्षा जगत से भटक कर न जाने कहां-कहां पहुंच गया! एक पल के लिए लगा मानों मैं किसी भीड़ भरे बाजार में आ गया हूं जहां चारों तरफ दूकानें सजी हैं और दूकानदार हांका लगा रहे हैं- हमारी दूकान पर आ जाओ। सबसे सुंदर, सबसे टिकाऊ, सबसे सस्ता माल यहीं मिलेगा। ऐसा नजारा मैंने जबलपुर के गुरंदी बाजार से लेकर लंदन के पेटीकोट मार्केट और शंघाई के बाजार तक देखा है। दूसरे पल महसूस हुआ कि मैं किसी बस अड्डे पर खड़ा हूं। बस का इंजन चालू कर ड्राइवर अपनी सीट पर बैठा है और नीचे खड़ा कंडक्टर हांका लगा रहा है- लखौली, आरंग, तुमगांव, पिथौरा की सवारी आ जाओ। दूसरी बस का कंडक्टर किसी और रूट का, और तीसरी बस वाला तीसरे किसी रूट के गांवों के नाम गिना रहा है।

मैं इसी तरह भटकते-भटकते कहीं और पहुंच जाता हूं। यहां भी ऊंची आवाज में हांके लग रहे हैं-
दस-बीस-चालीस करोड़ चाहिए तो आ जाओ।
मंत्री बनना है तो आ जाओ।
छापे पड़ने से बचना है तो आ जाओ।
जेल जाने से बचना है तो आ जाओ।
मारे जाने से बचना है तो आ जाओ।

मैं एक तरफ ये आवाज सुन रहा हूं और दूसरी तरफ देखता हूं कि कितने सारे लोग दौड़ते-भागते हांका लगाने वाले की ओर उमड़ पड़ रहे हैं। एक दूकान पर ऐसी भीड़! जबकि बाकी जगह दूकानदार मुंह लटकाए बैठ गए हैं। अगर यह बस अड्डे का दृश्य है तो मानो सारे यात्री पुन्नी मेला जा रहे हैं। उन्हें कहीं और जाना ही नहीं है।

अगर यह कोचिंग संस्थान का दृश्य है तो उस जगह का है जहां जीवन जीने की कला सिखाई जाती है, जहां योगबल से जितेंद्रिय बना जाता है, जहां व्यक्ति के बदलने से समाज बदलने का मंत्र मिलता है, जहां किसी जादू से भक्त की मुरादें पूरी हो जाती हैं। यह सचमुच इक्कीसवीं सदी के भारत की अद्भुत कहानी है।

तुम्हें अगर राजनीति में सफल होना है ''तो आ जाओ" का मंत्र सुगठित रूप में शायद पहली बार 1967 में फूंका गया था। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को अत्यन्त क्षीण बहुमत से जीत मिली थी और उसका प्रभाव विधानसभा चुनावों में भी देखने मिला था, जो साथ-साथ संपन्न हुए थे। गैर-कांग्रेसवाद का नारा तब बुलंद हुआ था और कितने ही प्रदेशों में बड़ी संख्या में कांग्रेस विधायकों ने अपना दल त्याग संयुक्त विधायक दल की यानि संविद सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका अदा की थी। मध्यप्रदेश में इनका नेतृत्व श्रीमती विजयाराजे सिंधिया ने किया था और छत्तीस दलबदलू विधायकों के सहारे गोविंद नारायण सिंह की सरकार बनी थी। तब मुख्यमंत्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र ने श्रीमती इंदिरा गांधी से कहा था कि उन्हें राज्यपाल से मिलकर विधानसभा भंग कर नए चुनाव की सिफारिश करने की अनुमति दी जाए। इंदिराजी ने उनकी राय नहीं मानी। वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री यशवंत राव चव्हाण का मानना था कि दलदबल के इसी अस्त्र से वे उत्तरप्रदेश में चरण सिंह सरकार को अपदस्थ कर देंगे। अगर मिश्रजी की सलाह मान ली गई होती तो दलबदल की दूकान पर वहीं ताला लग गया होता। आज किसे दोष दें- श्रीमती सिंधिया को, श्रीमती गांधी को, श्री चव्हाण को या उन तमाम समाजवादी-साम्यवादी नेताओं को जो दलबदल में जनसंघ के पिछलग्गू बन गए?

1985 में राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद दलबदल की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की ईमानदार लेकिन निष्फल कोशिश की। वे दलबदल विरोधी कानून लेकर आए। उस समय मधु लिमये एकमात्र नेता थे, जिन्होंने कहा था कि इस कानून से कोई लाभ नहीं होगा। वही हुआ। पहले एक तिहाई विधायकों के एकमुश्त दल बदलने की वैधानिक न्यूनतम सीमा तय की गई। वह बढ़कर पचास प्रतिशत और फिर दो-तिहाई कर दी गई, किंतु कानून तोड़ने में माहिर, और ऐसा करने में गर्व महसूस करने वाले भारतीय समाज के रहनुमाओं ने असंभव को भी संभव कर दिखाया। निस्संदेह, भारतीय संस्कृति के रखवालों ने ही ताला तोड़ने के गुर सिखाए।

1985 में आपके एक अखबार की भी राय थी कि लंबा-चौड़ा कानून बनाने के बजाय एक सीधा-सरल प्रावधान हो कि दलबदलू विधायक की सदस्यता तुरंत रद्द हो जाएगी और उसे अगले चुनाव तक कोई पद नहीं मिलेगा। लेकिन अब लगता है कि इसकी भी कोई काट शायद निकाल ली जाती! आज पश्चिम बंगाल, आंध्र, कर्नाटक, गोवा, मणिपुर, मेघालय, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, कुल मिलाकर चारों तरफ जो स्थिति बनी है, उसे देखकर तो यही प्रतीत होता है कि ''तो आ जाओ" का प्रलोभन बाकी तमाम बातों पर भारी पड़ गया है।

मुझे इस बात की चिंता कम है कि प्रदेश सरकारों का क्या होगा। बड़ी चिंता यह है कि इस दलबदल का मकसद कहीं गहरा है। ''तो आ जाओ" के होर्डिंग लगाकर जो बैठे हैं, वे दरअसल भारत में संसदीय जनतंत्र को समाप्त करना चाहते हैं। जब निर्वाचित प्रतिनिधियों की इन कारगुजारियों के चलते मतदाता उनमें विश्वास खो बैठेंगे, तब क्या होगा? यही न कि ये सब भ्रष्ट हैं, लालची हैं, भरोसेमंद नहीं हैं; कि इससे बेहतर तो तानाशाही है।

जिन समाज ने दो सौ साल तक अंग्रेजों की गुलामी झेली है; उस पर यदि कोई देसी तानाशाह राज करने लगे तो उसे जनता शायद खुशी-खुशी स्वीकार कर लेगी। आश्चर्य मत कीजिए यदि आगामी लोकसभा चुनावों के पूर्व इस देश में एक नया संविधान लागू हो जाए। आखिरकार, कितने ही संविधानवेत्ता और संसदविद् न जाने कब से राष्ट्रपति शासन प्रणाली की पैरवी करते आए हैं। अगर हम इसी योग्य हैं तो यही सही।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)