शिकस्त के बाद भी आखिर क्या करें राजेनता 

हार किसी को तोड़ दे सकती है, लेकिन यह उतना अहम नहीं है। इसके मुकाबले हराने वाले का आतंक कबूल करके खुद पर भरोसे को खो देना ज्यादा त्रासद है। भाजपा की जीत उतनी बड़ी कामयाबी नहीं है, जितना यह कि उसने अपने विपक्ष के मोर्चे पर खड़े लगभग सभी पक्षों के आत्मविश्वास को या तो तोड़ दिया है या फिर हिला दिया है। अरविन्द शेष की रिपोर्ट -

 शिकस्त के बाद भी आखिर क्या करें राजेनता 
Rahul Sonia (File Photo)

हार किसी को तोड़ दे सकती है, लेकिन यह उतना अहम नहीं है। इसके मुकाबले हराने वाले का आतंक कबूल करके खुद पर भरोसे को खो देना ज्यादा त्रासद है। भाजपा की जीत उतनी बड़ी कामयाबी नहीं है, जितना यह कि उसने अपने विपक्ष के मोर्चे पर खड़े लगभग सभी पक्षों के आत्मविश्वास को या तो तोड़ दिया है या फिर हिला दिया है।

जीत के बाद आम लोगों के बीच एक गजब की शांति छाई साफ दिखती है... मुर्दा शांति की तरह..! क्या इसी मुर्दा शांति में डूबे लोगों ने भाजपा को इतना भयावह बहुमत दिया है? सुना और देखा तो यह था कि इतनी बड़ी जीत के बाद समूचा देश ही जीत के जश्न में डूब जाए..! यह दिखा क्यों नहीं कहीं... सिवाय भाजपा के दफ्तरों को छोड़ कर..!

जिन विपक्षी पार्टियों को इस नतीजे को चुनौती के तौर पर लेना चाहिए था, वे फिलहाल स्तब्ध हैं, निराश हैं, हताश हैं। ऐसा लग रहा है कि उन्हें आगे के लिए कुछ नहीं सूझ रहा है। लेकिन यह आखिरी सच नहीं है। राजनीति की दुनिया में होने के लिए दिल के बहुत मजबूत होने की जरूरत होती है। ये राजनीतिक पार्टियां फिर उठेंगी, मैदान में उतरेंगी। हां, यह वक्त पर हो जाए, तो कुछ बच जाएगा, आरएसएस-भाजपा के विरोधी विपक्ष का और जनता का भी।

लेकिन इस नतीजे के सबसे ज्यादा अफसोसनाक और शर्ननाक हार सो-कॉल्ड बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों की हुई लगती है। भाजपा के पक्ष में भयावह बहुमत ने या तो सबसे ज्यादा बुद्धिजीवियों के आत्मविश्वास को तोड़ डाला है या फिर वे ऐतिहासिक मौकापरस्ती की बीमारी के मरीज हो गए हैं। हर तरफ से यह परम-ज्ञान परोसा जा रहा है कि राहुल गांधी, मायावती, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव या विपक्ष के मोर्चे पर लड़ने पर सभी नेताओं को इस्तीफा दे देना चाहिए! क्यों दे दें ये इस्तीफा..? क्या सिर्फ इसलिए कि यह चुनाव वे हार गए? फिर इन बुद्धिजीवियों को भी कुएं में कूद जाना चाहिए क्योंकि उनके तमाम उपदेश लाचारी के शिगूफे साबित हुए... वोट देने वाली जनता को अपने साथ लाने में कुछ नहीं कर सके..! मैं नहीं मानता कि इन बुद्धिजीवियों को खुदकुशी कर लेना चाहिए। इन्हें फिर से मैदान में उतरना चाहिए... लड़ना चाहिए..!

हारने वाले को उपदेश सभी देते हैं। मैदान में उतर कर सामना करना और ज्ञान-दर्शन बघारना दोनों दो बातें हैं। दिक्कत यह हुई कि कुछ नेता बुद्धिजीवियों के जाल में कुछ हद तक फंसे हुए रहे। अगर वे अपने स्तर पर जतन करते तो शायद कुछ ठोस कर पाते। बुद्धिजीवियों की हालत तो यह है कि जिस सबसे बड़े हथियार के जरिए यह चुनाव जीता गया है, उसे भी खारिज करके ये लोग नेताओं को सूली पर लटकाने की मांग कर रहे हैं कि इन्हें जनता ने खारिज कर दिया है। जनता ने नेताओं को खारिज नहीं किया है। मुझे अब भी जनता पर भरोसा है कि वह अभी इतनी असभ्य और दिमागहीन नहीं हुई है। उसे लूटा गया है... कई स्तरों पर।

उसका कोई हल है बुद्धिजीवियों के पास। या केवल हवाई ज्ञान की राजनीति करने का ही नशा छाया रहता है उन पर..! जिनके पास इतना भी समझ या याद रखने की सलाहियत नहीं है कि जिन भाजपा नेताओं की सभा में पांच सौ लोग भी जुटने मुश्किल हो रहे थे, वहां की सीटों पर तीन-चार लाख से जीतने के लिए वोटों की बरसात कैसे हुई। लेकिन नहीं..! उस पर बोलेंगे तो शर्म आएगी... तकनीक और आधुनिकता के विरोधी करार दिए जाएंगे..! इस बात की चिंता है कि एक सबसे निकृष्ट परंपरावादी, जड़तावादी ताकत उन्हें आधुनिकता और तकनीक की विरोधी कहेगी। यही सीमा है। केवल यही नहीं है। आ रही हैं छन-छन कर कुछ बातें। मीडिया ने जितना दबाया है, वह अपराध इतिहास में लिखा जाएगा।

कुछ सॉ-कॉल्ड प्रगतिशीलों और क्रांतिकारियों ने जमीन पर कहीं अपना चेहरा दिखाया भी तो वहां भी चुना कि कौन उनका 'अपना' है! उन्होंने 'अपना' या 'अपने हित' का सरोकार देखा तो गए। अपने खर्चे और वक्त निकाल कर गए। बाकी के लिए बुद्धिजीवियों ने फेसबुक और लेखों में दर्शन बघारने के अलावा क्या किया... जमीन पर कहां अपना चेहरा दिखाया..! जमीन की चुनौती क्या होती है, जरा कभी जमीन पर उतर कर देखिए! जिस जनता को आरएसएस-भाजपा ने लूट लिया, उसके लिए, उसे साथ लाने के लिए हमने कुछ भी ठोस किया होता तो कोई सवाल करना हमारा हक होता।

मेरा साफ मानना है कि यह लड़ाई फिलहाल हार गए नेताओं को सूली पर चढ़ा देने की मांग करने का हक हमें नहीं है। अगर हम जनता को कुछ दे नहीं सकते, तो उनसे लेने या अपेक्षा करने का हक हमें नहीं है। जो लोग जमीन पर हैं, सीधे जनता के संपर्क में हैं, उन्हें ही चुना जाएगा या खारिज किया जाएगा। जनता को वही समझते हैं या समझने में चूक करते हैं। नेताओं को इस्तीफा देना चाहिए या नहीं देना चाहिए, वे खुद तय करेंगे। कम से कम हवाई बुद्धिजीवियों की हांक पर तो उन्हें कोई फैसला नहीं लेना चाहिए। आज जो हारे हैं, कल वे हमारे बूते नहीं, अपने बूते ही फिर से खड़े होंगे। मरेंगे भी तो शायद अपनी ही वजह से। हम तो शायद हवामहल के कलाकार बने रहेंगे! भारत में वर्तमान भी यही है और अफसोस कि शायद भविष्य भी यही हो।

(अरविन्द शेष के ये अपने विचार हैं)