बिहार के इस चौकीदार को जानिए, कैसे गढ़ रहा है भारत का भविष्य

यदि आपके अंदर कुछ करने का जज्बा हो तो आप कुछ भी कर सकते हैं। इसी के बदौलत आप समाज में अपनी अलग पहचान बना सकते हैं। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है बिहार के मधुबनी जिले के कोसी नदी से सटे औरहा गाँव के उमेश पासवान ने। फूस की झोपड़ी में ढिबरी की रोशनी में बैठा उमेश का परिवार सैकड़ों ग्रामीणों के जीवन में उम्मीद का सवेरा ला रहा है। वो और उनका परिवार सही मायने में भारत का भविष्य गढ़ रहे हैं । सामाजिक चिंतक और शिक्षाविद संदीप यादव की रिपोर्ट :-

बिहार के इस चौकीदार को जानिए, कैसे गढ़ रहा है भारत का भविष्य
Mr Umesh Paswan bihar education center

यदि आपके अंदर कुछ करने का जज्बा हो तो आप कुछ भी कर सकते हैं। इसी के बदौलत आप समाज में अपनी अलग पहचान बना सकते हैं। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है बिहार के मधुबनी जिले के कोसी नदी से सटे औरहा गाँव के उमेश पासवान ने। लोग उन्हें दो वजहों से जानते हैं, पहला उनके द्वारा संचालित किया जाने वाला आस्था निःशुल्क शिक्षा सेवा केंद्र और दूसरा उनके द्वारा बनाया जा रहा लोकदेव सल्हेस का मंदिर।

उमेश पासवान दलित समुदाय से आते हैं। बिहार के इस निर्धनतम इलाके में उनके समाज के लोगों की स्थिति काफी दयनीय है। यह तो उनकी खुशकिस्मती थी कि उनके पिता चौकीदार थे, इसलिए वे पढ़-लिख पाए और उन्होंने केमिस्ट्री में ऑनर्स के साथ ग्रैजुएशन भी किया। लेकिन आगे पढ़ाई कर पाना उनके लिए संभव नहीं हो सका, क्योंकि उनके पिता बीमार पड़ गए और लंबे समय तक वेतन नहीं मिलने के कारण उनका सही इलाज भी नहीं हो सका। उनकी मृत्यु हो गई। घर-परिवार और माँ को संभालने के लिए उन्हें गाँव लौटना पड़ा और उन्हें अनुकंपा पर पिता की चौकीदार वाली नौकरी मिल गई। वे निराश तो बहुत हुए, लेकिन तय कर लिया कि यहीं रह कर वे कुछ सकारात्मक करने का प्रयास करेंगे, ताकि उनके समुदाय की नयी पीढ़ी को ऐसी विवशता का सामना नहीं करना पड़े।

छह साल पहले, 2013 में उन्होंने आस्था निःशुल्क शिक्षा सेवा केंद्र की स्थापना की और तय किया कि अपने वेतन का आधा पैसा वे इस केंद्र के संचालन में खर्च करेंगे। गाँव के दो पढ़े-लिखे युवकों को उन्होंने शिक्षक के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने बच्चों के लिए किताब और कॉपी का इंतजाम किया और अपनी पत्नी प्रियंका के साथ इस केंद्र के संचालन में जुट गए। आज इस केंद्र में 230 बच्चों ने नाम लिखा रखा है, जिनमें 167 बच्चे नियमित तौर पर यहाँ आते हैं। ये बच्चे सिर्फ उनके ही गाँव के नहीं, बल्कि आसपास के दो-तीन गाँवों के हैं।



उनकी इस साहित्यिक प्रतिभा को पहचान राष्ट्रीय स्तर पर मिली और पिछले साल जून महीने में उन्हें प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार मिला। यह ऐसा पुरस्कार था, जिसके बारे में उनके इलाके के लोग कुछ भी नहीं जानते थे। उन्होंने जब थाने में अपने सहकर्मियों को इसके बारे में बताया तो वे भी समझ नहीं पाए कि यह कैसा पुरस्कार है। उनकी माँ अमेरिका देवी ने कहा कि यह कैसा पुरस्कार है, सबको पैसे मिलते हैं, तुमको पुरस्कार मिलता है। मैं तो चाहती थी कि तुम डॉक्टर-इंजीनियर बनते, मगर कवि-साहित्यकार बन गये हो, डिबिया की रोशनी में आँख खराब करते हो, इस सबसे तुम्हें क्या मिलता है।

उमेश पासवान ने अपनी कविता में इसे कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है-

थाना पर रहि हम

सुखल रहै मन

शैन दिनक बात छै

पांच बजे साहित्य अकादमी से एलै हमरा फोन

घर जाय के माय के पैर छुई के हम कहलियै

हमरा भेटल साहित्य अकादमी पुरस्कार

माय कहलखिन-ई की होय छै

ऐ में, पैसा लगै छी कि पैसा दै छै

सबके भेटै छै ढौआ-कौड़ी, तोरा भेटलौ पुरस्कार

जो रे कपरजरुआ, तोहर कामे होय छौ बेकार

कत्ते साल से तू डिबिया के सबटा तेल जरोअलै

हमरा मोन रहे, तू डॉक्टर बैनते

रौद से जरल इ देह के

शौख सहेन्ता पूरा करितै

बन्हकी लागल खेत छोड़ेबतै

मूंह पेट बाइन्ह तोरा पढ़ैलियो

बाबू के नौकरी तोरा देलियौ

आब सुनै छी तू भै गेलै साहित्यकार

जो रे कपरजरुआ, तोहर कामे होय छौ बेकार

पढ़िए मैथिली गीत का हिंदी अनुवाद 

थाना पर थे हम

सूखा हुआ था मन

शनिवार की बात थी

पांच बजे साहित्य अकदामी से आया फोन

घर जाकर, मां के पांव छूकर मैंने कहा

मां, मुझे मिला है साहित्य अकादमी पुरस्कार

मां ने कहा- यह क्या होता है

इसमें पैसा लगता है, या पैसा मिलता है

सबको अपने काम के बदले में पैसे मिलते हैं, तुमको मिला है पुरस्कार?

जा रे जली हुई किस्मत वाला, तुम्हारा काम ही होता है बेकार

कितने साल से तुमने ढिबरी का सारा तेल जलाया

मैं चाहती थी, तुम डॉक्टर बनते

धूप से जली हुई इस देह की

सभी ख्वाहिशों को पूरा करते

गिरवी रखे खेतों को छुड़ाते

मुंह और पेट को बांधकर मैंने तुम्हें पढ़ाया

पिता के जाने पर उनकी नौकरी दी

अब सुनती हूं, तुम बन गए साहित्यकार

जा रे जली हुई किस्मत वाला, तुम्हारा काम ही होता है बेकार

फूस की झोपड़ी में ढिबरी की रोशनी में बैठा उमेश का परिवार सैकड़ों ग्रामीणों के जीवन में उम्मीद का सवेरा ला रहा है। वो और उनका परिवार सही मायने में भारत का भविष्य गढ़ रहे हैं ।