कोरोना इफेक्टः : आपात परिस्थितियों में कैसे करें मूल्यांकन?

निश्चित तौर पर उन लोगों के सामने अपने बच्चों के मूल्यांकन और परीक्षा परिणामों की समस्या होगी, जो बच्चों के लिए औपचारिक परिवेश निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। महामारी की परिस्थिति में सरकार द्वारा बिना परीक्षा बच्चों को उत्तीर्ण करने के निर्णय ने शिक्षकों के समक्ष यह चुनौती पैदा कर दी है कि वो अमूक छात्र/छात्रा को उत्तीर्ण करने की कवायद के हिस्से में क्या-क्या करें। कहना होगा कि इसका समाधान सतत मूल्यांकन प्रणाली में छुपा है। सतत मूल्यांकन क्या है, इसे कैसे समझा जा सकता है और इसे एक अंक पत्र पर कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है आदि के प्रशिक्षण से शायद की कोई शिक्षक वंचित होंगे। क्योंकि किसी भी शिक्षक को प्रशिक्षण के दौरान मूल्यांकन के विभिन्न पक्षों के बारे में भली-भांति सीखने का अवसर मिलता है।

कोरोना इफेक्टः : आपात परिस्थितियों में कैसे करें मूल्यांकन?
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जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमें प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और परीक्षा जैसे शब्दों से दो-चार होना पड़ता है। ये शब्द हमें पास-फेल के रूप रूप् में बहुत कुछ दे जाते हैं। किसी का जीवन पटरी पर सरपट दौड़ने लगता है तो किसी की ज़िन्दगी पटरी से उतर जाती है। फिर भी मनुष्य निर्मित व्यवस्था में हर व्यक्ति के जीवन में प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और परीक्षा की घड़ियां आती हैं। इस समय पूरी दुनिया में कोविड-19 नामक संक्रामक बीमारी ने आपात परिस्थितियां पैदा कर दी है। चीन, इटली और फ्रांस में संक्रमण की अनिंत्रित मामलों का संज्ञान लेते हुए भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों को आपात कदम उठाने पड़े। यदि उत्तरप्रदेश की बात करें तो यहां सरकार ने 13 मार्च को ही इसे महामारी घोषित करते हुए 14 मार्च से 22 मार्च तक कक्षा 1 से 8 तक के स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी किया था। संक्रमण की भयावहता और स्वास्थ्य सुरक्षा को दृष्टिगत हुए यह समय 2 अप्रैल तक बढ़ाया दिया गया। इस बीच कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों को बिना परीक्षा ही अगली कक्षा में प्रोन्नति प्रदान करने का भी आदेश जारी किया। इसके पीछे कोविड-19 के संक्रमण से बच्चों को बचाना ही प्रमुख उद्देश्य रहा है।

उक्त परिस्थिति में दो बाते चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। पहली यह कि वित्तीय वर्ष की ही तरह शैक्षिक सत्र का समय भी 1 मार्च से 31 मार्च तक होता है। लिहाजा 31 मार्च तक स्कूलों को  परीक्षाएं आयोजित कर मूल्यांकन कार्य करके बच्चों को प्रगति पत्र वितरित करना होता है। इसके बाद ही कोई बच्चा अगली कक्षा में प्रान्नति के लिए अर्ह् होता है। लेकिन  महामारी की आपात परिस्थितियों में छुट्टियां लगातार बढ़ानी पड़ीं हैं। पहले से चल रही परीक्षाओं को रोकना पड़ा। जिन स्कूलों में परीक्षाएं शुरू नहीं हुई थीं, उन्हें पहले टाला गया और अन्ततः निरस्त कर दिया गया। इस क्रम में 22 मार्च को जनता कफ्र्यू भी लगाना पड़ा। माननीय प्रधानमंत्री को देशवासियों से घरों में सुरक्षित बने रहने की अपील करनी पड़ी। यहां तक कि 25 मार्च से पूरे  देश को लाकडाउन कर दिया। अपील किया गया कि सिर्फ आपात आवश्यकता के लिए ही बाहर निकलें। घर के अंदर बने रहने का हर संभव प्रयास करें। फिर भी बहुत से लोग घर के बाहर मुक्त रूप से निरूद्देश्य घूमने से परहेज नहीं कर रहे हैं। जिसकी चिन्ता माननीय प्रधानमंत्री जी ने ट्वीटर और 24 अप्रैल को शाम 8 बजे के अपने संबोधन में व्यक्त की। उन्होंने हाथ जोड़कर विनती की कि यदि अगले 21 दिनों तक हम अपने-अपने घरों में रहलें, तो कोविड-21 के भयावह दुष्परिणामों से लोगों को बचाया जा सकता है। इस लेख के माध्यम से मैं भी अपील करता हूं कि हम में से हर व्यक्ति नैतिक रूप से कोविड-19 के संक्रमण को फैलने से रोकने संबंधी सुझावों का अक्षरशः पालन सुनिश्चित करे। इस अपील के साथ मैं उन लोगों की समस्या पर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं, जो माता-पिता और शिक्षक के तौर पर अपने बच्चों की परीक्षा और मूल्यांकन को लेकर चिन्तित हैं। यह चिन्ता स्वाभाविक भी है कि क्या बिना परीक्षा किसी बच्चे को अगली कक्षा में प्रोन्नत करना उचित है? ऐसे माता-पिता और शिक्षकों की चिन्ता अपनी जगह उचित है लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि महामारी की परिस्थितियां असाधारण होती है। खासकर तब जब कोविड-19 जैसी संक्रामक महामारी को डाॅक्टरों, दवाइयों और उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं के दम पर टाला नहीं जा सकता है। कोविड-19 ऐसी ही बीमारी है, जो महामारी का रूप धारण कर चुकी है। ऐसे में परीक्षा और मूल्यांकन से अधिक आवश्यक यह हो जाता है कि जिसके लिए परीक्षा का आयोजन किया जाता है और जिसका मूल्यांकन करना होता है, उसके स्वास्थ्य सुरक्षा के उपाय सोचे जाएं और समय रहते उचित कदम उठाएं जाएं। स्कूलों और अन्य सार्वजनिक महत्व के स्थानों पर बच्चों को जाने से रोकना ऐसा ही कदम है। इस पर सवाल उठाना बेमानी है।

निश्चित तौर पर उन लोगों के सामने अपने बच्चों के मूल्यांकन और परीक्षा परिणामों की समस्या होगी, जो बच्चों के लिए औपचारिक परिवेश निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। महामारी की परिस्थिति में सरकार द्वारा बिना परीक्षा बच्चों को उत्तीर्ण करने के निर्णय ने शिक्षकों के समक्ष यह चुनौती पैदा कर दी है कि वो अमूक छात्र/छात्रा को उत्तीर्ण करने की कवायद के हिस्से में क्या-क्या करें। कहना होगा कि इसका समाधान सतत मूल्यांकन प्रणाली में छुपा है। सतत मूल्यांकन क्या है, इसे कैसे समझा जा सकता है और इसे एक अंक पत्र पर कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है आदि के प्रशिक्षण से शायद की कोई शिक्षक वंचित होंगे। क्योंकि किसी भी शिक्षक को प्रशिक्षण के दौरान मूल्यांकन के विभिन्न पक्षों के बारे में भली-भांति सीखने का अवसर मिलता है। इसलिए परेशान होने या किसी आदेश का इंतेजार करने से बेहतर है कि शिक्षण कार्य में शामिल शिक्षक अपने विद्यार्थियों को सिखाई हुई बातों यानि विषयवार विभिन्न बिन्दुओं का मनन करें कि कब कौन सा टाॅपिक बच्चों को पढ़ाया था? किन बच्चों ने टाॅपिक के बारे में अवधाराणरात्मक समझ विकसित करने में कितनी गंभीरता का परिचय दिया था? शिक्षक स्कूल में बच्चों को पढ़ाते  समय के क्षणों को याद करें। बच्चों के चेहरे उनकी आंखों के सामने आएंगे। बच्चों का व्यवहार, आचरण और शिष्टाचार स्पष्ट याद आने लगेगा। विषय विशेष में अलग-अलग बच्चों का लिखित और मौखिक प्रदर्शन भी याद आएगा। बच्चोंके नाम क्रम से लिखकर प्रत्येक नाम पर विचार करें। निश्चित तौर पर एक पूरे शैक्षिक सत्र हीन हीं बल्कि पिछले कई वर्षों से बच्चों के साथ सीखने-सिखाने के ढ़ेर सारे क्षणों की याद ताज़ा हो उठेगी। फिर यह भी याद आएगा कि अमूक छात्र/छात्रा का विषय विशेष में क्या स्थिति रही है। इस तरह से मूल्यांकन का कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।

आज देश और दुनिया के समक्ष जीवन बचाने का जो संकट पैदा हुआ है, उसमें सतत मूल्यांकन की प्रणाली को व्यावहारिक तौर पर अपना कर मूल्यांकन की समस्या का समाधान किया जा सकता है। यदि इसके विस्तार में जाएं तो यह मानना होगा कि अर्द्ध-वार्षिक और वार्षिक लिखित परीक्षा की स्थापित परिपाटी के प्रतिकूल मूल्यांकन की इस प्रणाली को व्यापक स्तर पर कम से कम कक्षा 8 तक के शिक्षण कार्य में अपनाना जा सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जब हर शिक्षक पक्षपात, भेदभाव, वैयक्ति द्वेष और घृणा आदि भावों से स्वयं को दूर रखने के लिए स्वयं से ही वचनवद्ध हो।

बहुत सारे शिक्षकों के लिए सतत मूल्यांकन का कार्य बोझिल हो सकता है। यह तभी होता है जब हम किन्हीं अपरिहार्य कारणों से अपने विषय और बिंदु पर केन्द्रित नहीं होते। यह समझना ज़रूरी है कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में विषय बिन्दु पर केन्द्रित होने और केन्द्रित न होने के क्या मायने हैं। सीखने-सिखाने की गतिविधियां दो ध्रुवों के बीच बच्चों को केन्द्र में रखकर किया जाता है। बच्चा जिस केन्द्र में होता है उसके एक धु्रव पर माता-पिता और अभिभावक होते हैं। वहीं दूसरे धु्रव पर स्कूल और वहां शिक्षण कार्य में शामिल अध्यापक/अध्यापिका होते हैं। दोनों के काम बंटे हुए होने के बाद भी दोनों को केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए अपनी दिनचर्या तय करनी होती है और समर्पित भाव से प्रयास करना पड़ता है। क्योंकि केन्द्र में स्थित बच्चा ठीक अवस्था में होगा तो घर-परिवार, देश और समाज को स्थायित्व मिलेगा।

केन्द्र में स्थित बच्चे की कल्पना में भविष्य के एक सभ्य नागरिक, समाजसेवी, राजनीतिकर्मी, डाॅक्टर, इंजीनीयर, वकील, प्रोफेशनल, किसान और मज़दूर आदि सभी शामिल होते हैं। ये सारे पहचान एक दूसरे के पूरक होते हैं। इनमें परस्पर सहजीविता की कल्पना निहीत होती है। यदि ऐसा नहीं होता तो केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए माता-पिता और शिक्षकों को प्रयासहीन हीं करना पड़ता। बच्चे को न तो स्कूल के औपचारिक परिवेश में अच्छे मूल्यों और गुणात्मक सीख की आवश्यकता होती और न ही घर और समाज के अनौपचारिक परिवेश में माता-पिता को अपने बच्चों को परंपरा और संस्कार सिखाने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती। मानव जीवन के इस सच को परीक्षा और मूल्यांकन की स्थापित प्रणाली से जोड़कर देखें तो अंदाज़ा होता है कि माता-पिता व्यक्तिगत और अनौपचारिक तौर पर अपने बच्चों का सतत मूल्यांकन करते रहते हैं। यही वजह है कि वो हर दिन, हर क्षण अपने बच्चों के समक्ष जीवन के उत्तम आचार, विचार और व्यवहार के साथ-साथ श्रेष्ठ अनुशासन, आचरण और शिष्टाचार आदि के आदर्श प्रस्तुत करते रहते हैं। ताकि बच्चे के व्यक्तित्व में ये बातें मूल्य के रूप में स्थापित और विकसित हो सकें।

अब बात करते हैं दूसरे धु्रव की जहां शिक्षक होते हैं। शिक्षक केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए औपचारिक प्रयास करते हैं। स्कूल के औपचारिक परिवेश में बच्चे को अनुशासन और शिष्टाचार के साथ-साथ निर्धारित पाठ्यक्रम को समयबद्ध तरीके से पढ़ाना-सिखाना शिक्षक का दायित्व होता है। शिक्षक के ऊपर यह जिम्मेदारी होती है कि वो बच्चों में विभिन्न विषयों से संबंधित विभिन्न बिन्दुओं की समझ बनाने में उसी समर्पण भाव का परिचय दे जैसा कि घर के अनौपचारिक परिवेश में माता-पिता और अभिभावक संस्कार की सीख देते समय दिखाते हैं। स्कूली शिक्षा में ऐसा करना ही शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सुखद समझा जाताहै। यदि मौजूदा दौर में स्कूली शिक्षा की बात करें तो लगभग सभी स्कूल और शिक्षक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए समर्पित नज़र आते हैं। मूल्यांकन की सतत प्रक्रिया को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। उक्त बातों का ध्यान करके कोई भी शिक्षक अपने विद्यार्थियों की प्रगति रिपोर्ट तैयार कर सकता है।

यदि किसी शिक्षक के समक्ष फिर भी संशय की स्थिति हो कि ऐसी स्थिति में क्या करें जब उन्हें दो-तीन घण्टे की परीक्षा की प्रचलित परिपाटी के बिना ही बच्चों को पास करना है, तो उसे यह समझ लेना चाहिए कि अब तक वो जिन बच्चों का मूल्यांकन परीक्षा की स्थापित परिपाटी से करते रहे हैं, अब उन्हीं बच्चों के सामने अपना मूल्यांकन प्रस्तुत करना है। जो शिक्षक पूरे शैक्षिक सत्र भर केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए समर्पित भाव से प्रयास करते हैं, उनके लिए किसी बच्चे का मूल्यांकन कोई बड़ी बात नहीं होती। यह भी सत्य है कि जब कोई शिक्षक विद्यार्थियों का मूल्यांकन करता है, तो इस प्रक्रिया में उस शिक्षक का खु़द का मूल्यांकन भी स्वतः होता रहता है। इसलिए ज़रूरी है कि चैतन्य होकर शिक्षा शास्त्र के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षक बिना औपचारिक परीक्षा के विद्यार्थियों का शैक्षिक मूल्यांकन कर प्रगति पत्र तैयार करें। इस काम को बिना किसी असहजता से किया जा सकता है। क्योंकि शिक्षक को अपने विद्यार्थियों के साथ स्कूल के औपचारिक परिवेश में एक या एक से अधिक शैक्षिक सत्र व्यतीत करने का अवसर मिलता है। शिक्षक को यह बात हमेशा याद रखना चाहिए कि उन्हें न तो बच्चों के ज्ञान की परीक्षा लेनी होती है और न ही अपनी योग्यता का प्रमाण देना होता है। सीखना-सिखाना दो धु्रवीय प्रक्रिया है जिसके केन्द्र में बच्चा होता है। हमें उस बच्चे के लिए निरन्तर अवसर सृजित करने की ओर अग्रसर रहना होता है न कि पास-फेल की प्रक्रियों को सम्पन्न कराने तक सीमित रहना होता है।                                                                                             -डा॰वसीम अख़्तर, लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े  हैं। इंडिपेन्डेन्ट रिसर्चर, काउंसलर, स्वतंत्र लेखक पत्रकार और वक्ता के रूपमें समय-समय पर शिक्षा औरसमाज के मुद्दों को उठाते रहे हैं।