माँ कूष्मांडा की शरणागति से परमपद की होती है प्राप्ति!

माँ कूष्मांडा संपूर्ण फलदात्री हैं। माँ की आराधना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश एवं बल में वृद्धि होती है। माँ कूष्मांडा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। यदि साधक सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए, तो उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो जाती है। माँ कूष्मांडा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त रखती है।

माँ कूष्मांडा की शरणागति से परमपद की होती है प्राप्ति!
Pic of Maa Kushmanda
माँ कूष्मांडा की शरणागति से परमपद की होती है प्राप्ति!
माँ कूष्मांडा की शरणागति से परमपद की होती है प्राप्ति!
माँ कूष्मांडा की शरणागति से परमपद की होती है प्राप्ति!
माँ कूष्मांडा की शरणागति से परमपद की होती है प्राप्ति!

शक्ति की देवी दुर्गा के चतुर्थ स्वरुप का नाम कूष्मांडा है। अपनी मंद हल्की हंसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कुष्मांडा देवी के नाम से अभिहित किया गया है। दुर्गा सप्तशती के कवच में लिखा है। "कुत्सित: कूष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत: संसार:,स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कूष्मांडा" अर्थात वह देवी जिनके  उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है, वह कूष्मांडा हैं। देवी कूष्मांडा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं।

जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था। चारों ओर अंधकार ही अंधकार व्याप्त था, तब माँ कूष्मांडा ने ही अपनी हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की। अतः यही सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति है। माँ कूष्मांडा का निवास सूर्य मंडल के भीतर के लोक में है। सूर्यलोक में निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल माँ कूष्मांडा में ही है।

माँ के शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दीप्तिमान और भास्कर है। माँ के तेज और प्रकाश से ही दसों दिशाएं प्रकाशित हो रही है। ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। देवी कुष्मांडा का मुखमंडल सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है।

माँ कूष्मांडा जब प्रकट हुईं तब उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है,उसी प्रकार माँ की हंसी से सृष्टि में ब्रह्मण्ड का जन्म हुआ। संस्कृत भाषा में कुष्मांडा कुम्हड़े को कहते है। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी ये कुष्मांडा कही जाती हैं।

माँ कूष्मांडा की महिमा

नवरात्र के चौथे दिन मां कूष्मांडा की उपासना का विधान है। माँ कूष्मांडा संपूर्ण फलदात्री हैं। माँ की आराधना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश एवं बल में वृद्धि होती है। माँ कूष्मांडा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। यदि साधक सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए, तो उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो जाती है। माँ कूष्मांडा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त रखती है। माँ कूष्मांडा की अर्चना मनुष्य को सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतः लौकिक, पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए। माँ के भक्ति मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर साधक को उनकी कृपा का सुक्ष्म अनुभव होने लगता है। यह दुःख स्वरुप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बन जाता है। माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम एवं श्रेयस्कर मार्ग है। माँ कुष्मांडा देवी के श्री चरणों में सत सत नमन।

अष्टभूजी हैं माँ कूष्मांडा

माँ कूष्मांडा सिंह पर आरूढ़, शांत मुद्रा की भक्तवत्सल देवी हैं। माँ कूष्मांडा की आठ भूजाएं हैं। अतः इनको अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। माँ के आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। माँ कूष्मांडा के हाथ में सुशोभित कमंडल जहां शुद्धता का प्रतीक है, वहीं धनुष-वाण ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं। माता के हाथों का कमल पुष्प ऐश्वर्य और सुख का सूचक है। इसके अतिरिक्त यह कमल पुष्प मनुष्य को  वासना, लोभ और लालच से दूर होकर सफलता प्राप्त करने की भी सीख देता है। माँ कूष्मांडा अपनी बाईं ओर के प्रथम हाथ से कुंभ को अपनी कोख से लगाए हुए हैं, जो गर्भावस्था का प्रतीक माना जाता है। माँ की तर्जनी में घूमता सुदर्शन चक्र इस बात का प्रतीक है कि पूरी दुनिया उनके अधीन है। सब उनके आदेश में हैं। वह बुराई को नष्ट कर धर्म का विकास करेगा और धर्म के अनुकूल वातावरण तैयार करने और पापों का नाश करने में सहायक होगा। जबकि माँ के हाथों में शोभायमान गदा शक्ति, बल और लोकरक्षा का प्रतीक है।

देवी कुष्मांडा की पूजा

नवरात्र के चौथे दिन देवी दुर्गा के चौथे स्वरूप माँ कूष्मांडा की आराधना का विधान है। आज के दिन सर्वप्रथम एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाएं। उसके उपरांत माँ कूष्मांडा की मूर्ति अथवा तस्वीर को चौकी पर दुर्गा यंत्र के साथ स्थापित करें। तत्पश्चात दीप प्रज्ज्वलित करें और हाथ में पीलें पुष्प लेकर माँ कूष्मांडा को प्रणाम कर इस मंत्र का ध्यान करें।

''सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधानाहस्तपद्याभ्यां कुष्माण्डा शुभदास्तु में॥"

ध्यान के बाद हाथ के पुष्प को चौकी पर अर्पण करें तथा माँ कूष्मांडा और यंत्र  का पंचोपचार विधि से पूजन करें। इसके बाद साधक माँ के इस मंत्र का का सौ आठ बार जाप करें। ॐ क्रीं कूष्मांडायै क्रीं ॐ....इस दिन साधक का मन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है। अतः साधक पवित्र मन से माँ कूष्मांडा के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजन करते हैं। जो साधक कुंडली जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं, उन्हें नवरात्रि के चतुर्थ दिन देवी कूष्मांडा की विधिवत पूजा-अर्चना करना चाहिए। फिर मन को अनहत चक्र में स्थापित करने हेतु माँ का आशीर्वाद लेना चाहिए। इस तरह से जो साधक साधना करते हैं, मां कूष्माण्डा उन्हें अवश्य सफलता प्रदान करती हैं। माँ कूष्मांडा की पूजा के पश्चात महादेव और परम पिता की पूजा करना अति-उत्तम माना गया है। 

माँ कुष्मांडा का मंत्र

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

माँ कुष्मांडा का ध्यान मंत्र

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।
कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

माँ कुष्मांडा का स्तोत्र पाठ

दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।
जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम्।
परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम्॥

माँ कुष्मांडा का कवच

हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥

इसीलिए कमल को पुष्पराज की संज्ञा भी दी गई है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु की नाभि से कमल पुष्प का उत्पन्न होना तथा उस पर विराजमान ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना करना कमल पुष्प की महत्ता को स्वयं सिद्ध करता है। कमल पुष्प को ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा सरस्वती ने आसन बनाया है। कमल का पुष्प कीचड़ और जल में उत्पन्न जरूर होता है, परंतु उससे निर्लिप्त रहकर हमें पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा देता है। यह इस बात की प्रतीक है कि बुराइयों के बीच रहकर भी व्यक्ति अपनी मौलिकता तथा श्रेष्ठता बचाए रख सकता है।