गरीब-गुरबों की आवाज थे जननायक कर्पूरी ठाकुर, सादगी,ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के थे प्रतिमूर्ति

कर्पूरी ठाकुर ने 1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत दी। गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी बंद कर दी। यह किसानों के लिए राहत देने वाला फैसला था। उनका अन्य महत्वपूर्ण काम 5 बीघा से कम खेत वाले सभी किसानों को सिंचाई टैक्स से छूट देना था, जिससे छोटे किसानों को बहुत फायदा हुआ।

गरीब-गुरबों की आवाज थे जननायक कर्पूरी ठाकुर, सादगी,ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के थे प्रतिमूर्ति
Pic Of Jannayak Karpoori Thakur
गरीब-गुरबों की आवाज थे जननायक कर्पूरी ठाकुर, सादगी,ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के थे प्रतिमूर्ति
गरीब-गुरबों की आवाज थे जननायक कर्पूरी ठाकुर, सादगी,ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के थे प्रतिमूर्ति
गरीब-गुरबों की आवाज थे जननायक कर्पूरी ठाकुर, सादगी,ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के थे प्रतिमूर्ति
गरीब-गुरबों की आवाज थे जननायक कर्पूरी ठाकुर, सादगी,ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के थे प्रतिमूर्ति

देशभर में 24 जनवरी की खास अहमियत है। हर साल इसी दिन जननायक कर्पूरी ठाकुर की जयंती मनाई जाती है। कर्पूरी ठाकुर राजनीति में उस ऊंचाई तक पहुंचे, जहां उनके जैसी पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति के लिए असंभव सा है। कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में गरीब-गुरबों की सबसे बड़ी आवाज बन कर उभरे थे।

बिहार में समस्तीपुर प्रखंड के पितौंझिया जिसका नाम अब कर्पूरीग्राम है,में 24 जनवरी, 1924 को जन्मे कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद लगातार बिहार विधानसभा का सदस्य रहे। दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे। इस दौरान ऐसी छाप छोड़ी कि आज भी लोग उन्हें याद करते हैं।

बिहार में समाजिक बदलाव की शुरुआत करने का श्रेय भी कर्पूरी ठाकुर को जाता है। कर्पूरी ठाकुर 1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बने। उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म कर दी। इसके चलते उनकी आलोचना हुई, लेकिन उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। ऐसा इसलिए किया कि उस समय अंग्रेजी में सबसे ज्यादा बच्चे फेल होते थे। हालांकि, उनका मजाक भी उड़ाया गया। आर्थिक तौर पर गरीब बच्चों की स्कूल फी को माफ करने का काम भी किया। कर्पूरी ठाकुर देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी।

कर्पूरी ठाकुर 1977 में जब बिहार के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने विद्यार्थियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से आरक्षण लागू किया। कर्पूरी फार्मूले के तहत अन्य पिछड़ी जातियों को 8 प्रतिशत, अतिपिछड़ी जातियों को 12 प्रतिशत, महिलाओं को और उच्च जाति के गरीबों को 3 -3 प्रतिशत आरक्षण दी गई। कर्पूरी मंत्रिमंडल ने राज्य में पंचायत चुनाव कराया जिससे गांधी के ग्राम-स्वराज की परिकल्पना साकार हुई।

कर्पूरी ठाकुर ने 1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत दी। गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी बंद कर दी। यह किसानों के लिए राहत देने वाला फैसला था। उनका अन्य महत्वपूर्ण काम 5 बीघा से कम खेत वाले सभी किसानों को सिंचाई टैक्स से छूट देना था, जिससे छोटे किसानों को बहुत फायदा हुआ।

1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य की नौकरियों में गरीबों और पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू कर दिया।  हालांकि, इसका उस समय भारी विरोध भी हुआ। लेकिन, उन्होंने बगैर झुके समाज के पिछड़े वर्ग को आगे बढऩे का मौका दिया। कर्पूरी ठाकुर को युवाओं को रोजगार देने के प्रति प्रतिबद्धता इतनी थी कि शिविर लगाकर 9 हजार से ज्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दी। इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए।

1977 के चुनाव में कांग्रेस की जो भयानक दुर्गति हुई तो इसका पूरा श्रेय जननायक कर्पूरी ठाकुर को जाता है। बिहार में कांग्रेस को लोकसभा की एक भी सीट नसीब नहीं हुई थी और विधानसभा में उसे मात्र 57 सीटों और 23.5 फीसदी वोटों से संतोष करना पड़ा था। 22 जून 1977 को कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने। इससे पहले 1967 का चुनाव भी गैर-कांग्रेसवाद के मुद्दे पर कर्पूरी ठाकुर के ही नेतृत्व में लड़ा गया था और बिहार में कांग्रेस के 20 वर्षों के शासन का अंत हुआ।

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजातान्त्रिक सोशलिस्ट पार्टी, भाकपा, जनक्रांति दल के सहयोग से महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार बनी थी, जिसमे कर्पूरी जी उपमुख्यमंत्री बने और शिक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी भी उन्हीं के पास थी। इस सरकार को जनसंघ का भी समर्थन प्राप्त था। 

कर्पूरी ठाकुर लंबे समय तक राजनीति में रहे। वे विधायक और मुख्यमंत्री रहे। लेकिन, अपने जीवन में एक इंच न तो जमीन खरीद सके और न ही अपना घर ही बना सके। लोग इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। लेकिन, यह सच है। झोपड़ी के लाल कर्पूरी जीवन भर अपनी झोपड़ी में ही रहे। ऐसा करनेवाला देश में शायद ही कोई नेता होगा। कर्पूरी ठाकुर परिवारवाद के विरोधी थे। 

कर्पूरी ठाकर का देहांत 64 साल की उम्र में 17 फरवरी 1988 को दिल का दौरा पडऩे से हो गया। वे भले ही आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके विचार, उनकी निष्ठा, सादगी, ईमानदारी लोगों के जेहन में है। कर्पूरी ठाकुर द्वारा समाज के लिए किए गए कार्यों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।