सामाजिक न्याय की हार कब और कैसे हो गई?

जब किसी चुनाव में सामाजिक न्याय, विविधता, आरक्षण का विस्तार, तमाम संस्थाओं में वंचितों की हिस्सेदारी, जातिवार जनगणना, निजी क्षेत्र में आरक्षण और लोकतंत्र का आख़िरी आदमी तक विस्तार मुख्य मुद्दा हो और दक्षिणपंथी-ब्राह्मणवादी विचारधारा जीत जाए, तभी उस चुनाव में आपकी और हमारी हार मानी जाएगी।

सामाजिक न्याय की हार कब और कैसे हो गई?

तुम ये कहते हो कि वो जंग हो भी चुकी, 
रखा नहीं जिसमें हम ने अब तक क़दम!

जब किसी चुनाव में सामाजिक न्याय, विविधता, आरक्षण का विस्तार, तमाम संस्थाओं में वंचितों की हिस्सेदारी, जातिवार जनगणना, निजी क्षेत्र में आरक्षण और लोकतंत्र का आख़िरी आदमी तक विस्तार मुख्य मुद्दा हो और दक्षिणपंथी-ब्राह्मणवादी विचारधारा जीत जाए, तभी उस चुनाव में आपकी और हमारी हार मानी जाएगी।  
जब इन मुद्दों पर चुनाव लड़ा ही नहीं गया, तो सामाजिक न्याय की हार कब और कैसे हो गई? हाँ, आप और हम असफल साबित हुए। इसलिए नहीं कि कोई जीत गया और कोई हार गया। हम सबकी असफलता इसमें है कि चुनाव का एजेंडा सेट करने में हम असमर्थ हैं। हम चुनाव में सामाजिक न्याय को मुद्दा नहीं बना पाए पार्टियाँ तो पहले ही सरेंडर कर चुकी थीं।
उत्तर भारत की किसी भी पार्टी ने सवर्ण आरक्षण का लोकसभा में विरोध नहीं किया। सामाजिक न्याय की हार उसी दिन हो गई थी। 23 मई, 2019 को तो उस हार का ऐलान भर हुआ है। हम देश की एक भी पार्टी को सहमत नहीं कर पाए कि वो सामाजिक न्याय के मुद्दे पर चुनाव लड़ें। जिन दलों ने इनमें से कुछ मुद्दे को उठाया भी, वो भी इसे चुनावी इश्यू नहीं बना पाए।

बहुजन समाज का आज एक भी बुद्धिजीवी ऐसा नहीं है, जिनकी सपा, बसपा या आरजेडी या कांग्रेस के शिखर नेताओं तक पहुँच है। मुझे नहीं लगता कि किसी भी बहुजन बुद्धिजीवी से ऐसी किसी पार्टी के किसी अध्यक्ष ने पूरे चुनाव के दौरान दो मिनट के लिए भी मुद्दों पर बात भी की है। इन पार्टियों के तमाम सलाहकार और रणनीतिकार सवर्ण हैं। उन्होंने सामाजिक न्याय को मुद्दा बनने नहीं दिया। उन नेताओं की नज़र में सवर्ण ही समझदार माना जाता है। ये बीजेपी, कांग्रेस और लेफ़्ट ही नहीं, सपा, बसपा और आरजेडी का भी सच है।

एससी, एसटी, ओबीसी के सारे पढ़े-लिखे लोगों को स्वीकार कर लेना चाहिए कि इनके नेताओं के सामने उनकी कोई हैसियत नहीं है। अच्छी बात ये कि समाज में उनका आदर और सम्मान है। ये विचारों की लंबी जंग है। ये वाली चौकी उनके हिस्से गई।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)